एक निरा राजनैतिक समय में मेरा मन अचानक साहित्यिक होने के लिए मचल उठा।राजनीति में रहते हुए भी अपन हमेशा ‘अराजक’ रहे।कभी खुलकर नहीं आए।खुलने के अपने ख़तरे होते हैं।राजनीति में भी,साहित्य में भी।एकदम से खुलना कइयों को खलने लगता है।सत्ता और राजनीति में चुप रहकर ही रसपान किया जा सकता है।इससे किसी प्रकार का विघ्न नहीं पड़ता।मुखरता मूर्खता की पर्याय है।इधर आप मुखर हुए नहीं कि राजनीति और साहित्य दोनों आपसे मुकरने लगते हैं।जबकि चुप्पी साधकर दोनों हाथों से लड्डू खाए जा सकते हैं।एक स्थापित बुद्धिजीवी होने के नाते मैं उखड़ने का ख़तरा कभी नहीं मोल लेता।आज भी नहीं लूँगा।जब भी दुविधा में होता हूँ,अंतर्मन की सुनता हूँ।वह सदैव हमारी आत्मा का भला सोचता है।आज भी वह पुकार-पुकार कर कह रहा है कि मौक़ा है,साहित्यिक हो जाओ।हमने ‘मन की बात’ सुन ली और साहित्य के सबसे बड़े पथ-प्रदर्शक से मिलने निकल पड़े।जब भी साहित्य मुख्य-धारा से भटकने लगता है,वे उसे सही दिशा पकड़ा देते हैं।कहते हैं उनके पास ऐसा ‘दिशासूचक यंत्र’ है जिससे वह अगली-पिछली सारी दिशाएं जान लेते हैं।
उनसे आपको मिलाऊँ,उससे पहले उनके परिचय से मिलना ज़रूरी है।‘जीवन ही जिसका परिचय’ इस कहावत को भी उन्होंने उलट दिया है।वे पूरी तरह मौलिकता के पक्षधर हैं।अपनी तरह के इकलौते।यह बात उनके ‘परिचय’ से खुलती है।सोशल मीडिया की उनकी प्रोफ़ाइल में साफ़-साफ़ दर्ज़ है कि पचासी पुस्तकों के एकमात्र लेखक वही हैं।यह संख्या उनके संकोच का नतीजा है।अन्यथा सूत्रों के हवाले से ख़बर यह भी है कि इससे कहीं अधिक उनकी किताबें प्रकाशकों के यहाँ पड़ी हैं।किताबें इतनी परतों में दबी हैं कि छह की छह एक साथ विमोचित हो जाती हैं।कृपया इसे उनका रचना-कर्म ही समझें,कार्बाइन से निकली गोलियाँ नहीं।उनकी किताबों को पढ़कर अभी तक किसी तरह की दुर्घटना की ख़बर भी नहीं आई है।साहित्य में उनका ज़बर्दस्त आतंक है।सभी सम्मान उनके चरणों में गिरते हैं।वे उन सम्मानों को ‘सम्मान’ देने के लिए स्वयं गिर लेते हैं।इसे ही साहित्य में कला की संज्ञा दी गई है।वे हर हाल में साहित्य के साथ हैं।लोग नाहक आरोप लगाते हैं कि वे राजनीति से बचते हैं।सच तो यह है कि वे साहित्य में अब तक इसीलिए बचे हुए हैं।
शायद वे हमारा ही इंतज़ार कर रहे थे।ऐसा उनके हावभाव देखकर लगा।हम उनके चरणों को श्रद्धापूर्वक ताक ही रहे थे कि वे हमारी मंशा भाँप गए।हमें गिरने से बचा लिया।हो सकता है, वे साहित्य में किसी तरह की प्रतियोगिता को बढ़ावा नहीं देना चाह रहे हों।हमने उनसे गले लिपट कर क्षतिपूर्ति कर ली।हम कुछ बोलते इससे पहले ही वे शुरू हो गए।
‘वत्स,साहित्य को तुम जैसे युवाओं की सख़्त ज़रूरत है।हम अकेले कब तक इसे चरते रहेंगे ! कहाँ राजनीति में फँसे हो,इधर आ जाओ।वहाँ बहुत कीचड़ है।साहित्य को हम उससे आगे ले जाना चाहते हैं।कुछ लोग घटिया क्वॉलिटी का कीचड़ वहाँ से ले आए हैं।हम राजनीति से क्यों उधार लें जब उच्च क्वॉलिटी का कीचड़ साहित्य में हम स्वयं उपलब्ध करा रहे हैं।तुम राजनीति में क्या हासिल कर पाए अब तक ? साहित्य में रहोगे तो आजीवन ‘संभावनाशील’ तो बने रहोगे।’इतना कहकर वे हमारी ओर ताकने लगे।
‘नहीं गुरुदेव,हमें तो साहित्य का ‘कखग’ भी नहीं आता।हम यहाँ आकर क्या करेंगे ? राजनीति में चाहे कुछ करना आता हो या नहीं,बस अतीत पर कीचड़ उछाल देने भर से उसमें उबाल आ जाता है।एक बयान देकर रातोंरात चर्चित हो सकते हैं।साहित्य में तो पूरा ग्रंथ लिखना पड़ता है।अब आप को ही देखिए,किताबों का शतक मारने के क़रीब हैं।यह हमसे न हो पाएगा प्रभो !’ हम एकदम से विचलित हो उठे।
साहित्य-प्रवर ने तुरंत हमारे कंधे पर बायाँ हाथ रखा और बोले-‘बेटा,वाक़ई तुम्हें साहित्य की कुछ भी समझ नहीं है।तुम क्या जानते हो कि इतना लिखकर मैं टिका हुआ हूँ ! लिखना और बने रहना दोनों अलग बातें हैं।साहित्य में वही जीवित नहीं है जो लिखता है।यहाँ जो दिखता है,वही टिकता है।लिखने का क्या है,वह भी हो जाएगा।वसंत,फागुन,होली,चमेली न जाने कितने विषय भरे पड़े हैं।एक-दो किताबें घसीट दो बस।बाद में उन्हीं को ‘रीसाइकिल’ करते रहना।एक बार साहित्य में तुम घुस गए तो मेरे सिवा तुम्हें कोई नहीं रोक पाएगा।दस प्रतियों के संस्करण को भी ‘बेस्टसेलर’ बनवा दूँगा।तुम्हें बस साहित्य में ऐसा कीचड़ मचाना है कि हमारे आसपास भी आने की कोई हिम्मत न कर सके।मुझे तुम पर अधिक भरोसा है क्योंकि राजनीति में तुम्हारी ‘डिलीवरी’ देख चुका हूँ।तुम अच्छी तरह दीक्षित हो।साहित्य में ऐसे ‘पीस’ आजकल मिलते कहाँ हैं ! मंच,समारोह,विमोचन,विमर्श सब तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं।एक साथ इतनी संभावनाएँ राजनीति में भी नहीं हैं।गिरने की कला में तुम हमसे भी निपुण हो।हमारे बाद साहित्य के असली वारिस तुम्हीं हो।तुम्हारा साहित्य में आना ‘छायावाद’ के बाद की सबसे बड़ी घटना होगी।साहित्य में इसे ‘वंशवाद’ के नाम से जाना जाएगा।यहाँ रहोगे तो तुम पर शोध होंगे।राजनीति में रहोगे तो पचास साल बाद भी ‘प्रतिशोध’ के पात्र बनोगे।इसलिए आओ,अंधकार से उजाले की ओर चलें।’
हमारे चक्षु खुल चुके थे।सामने साहित्य की सत्ता हमारा आलिंगन करने को बेक़रार हो रही थी।
संतोष त्रिवेदी
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