हमें झूठे लोग बेहद पसंद हैं।वे बड़े निर्मल-हृदय होते हैं।कभी भी अपने झूठे होने का घमंड नहीं करते।ये तो सच्चे लोग हैं जो अपनी सच्चाई की डींगें मारते फिरते हैं।झूठा अपने झूठे होने का स्वाँग नहीं करता।खुलकर और पूरे होशो-हवास में बोलता है।वह ख़ुद इस बात का प्रचार नहीं करता।उसके ‘प्रशंसक’ ही कर देते हैं।कहते हैं सच बोलने के लिए बड़े कलेजे की ज़रूरत होती है पर झूठ बोलने के लिए महज़ एक भेजे की।यह भेजा बिना शोर किए अपने नित्य-कर्म में तल्लीन रहता है।झूठे व्यक्ति सहृदय भी ख़ूब होते हैं।किसी भी काम के लिए ‘ना’ कभी नहीं करते।काम तो ‘सच’ वाले भी नहीं करते।नाक-भौं सिकोड़ेंगे,चार उपदेश देंगे सो अलग।झूठ का आश्वासन कम से कम झूठ साबित होने तक तो राहत देता है।झूठ बोलने वाला बिलकुल तनाव-रहित होता है।मौक़ा पड़ते ही अतिरिक्त लचीला हो जाता है।सच की तरह उसमें अकड़ नहीं होती।इसीलिए सच टूटता है और झूठ क़ायम रहता है।
कहते हैं झूठ के पाँव नहीं होते,पर झूठ एक दाँव तो हो ही सकता है।जिस तरह झूठ के चलने की संभावना होती है,वैसे ही दाँव की भी।चल गया तो चल गया नहीं तो रणनीति तो है ही।झूठ अपने सच होने के लिए संदेह को साथी बनाता है।शायद इसीलिए ‘बेनिफ़िट ऑफ़ डॉउट’ सच के बजाय झूठ को मिलता है।वैसे भी सच कड़वा होता है।न उगलते बनता है न निगलते।झूठ बेहद सुविधाजनक होता है।ज़ुबान पर रखते ही मिसरी-सा घुल जाता है।सुनने में भी अच्छा लगता है।झूठ बोलने का लंबा अनुभव होने पर ज़ुबान लड़खड़ाने का ख़तरा नहीं होता।यह दैनिक कसरत की तरह हो तो चेहरे से आत्मविश्वास की बरसात होती है।
झूठ को किसी के समर्थन की दरकार नहीं होती।सच जहाँ सबूत ढूँढता फिरता है,झूठ ख़ुद ही सबूत होता है।झूठ के पास अपनी ताक़त होती है।कमज़ोर आदमी उसे संभाल भी नहीं सकता।
सच डरा-सहमा रहता है जबकि झूठ खुलेआम दहाड़ता है।इसीलिए सच को उगलवाने की ज़रूरत होती है जबकि झूठ को केवल बोलने की।महाबली जो बोलता है,वही सच होता है।विद्वानों ने ‘किंग इज़ आल्वेज़ राइट’ यूँ ही नहीं कहा है।झूठ बोलना राजसी लक्षण है।जो क़ायदे से झूठ भी नहीं बोल सकता,ख़ाक अगुवाई करेगा।झूठा होना शर्म का नहीं योग्यता का प्रतीक है।यदि आप अपने तईं झूठ भी नहीं बोल सकते तो क़तई नाकारा हैं।अगर आप झूठ बोल रहे हैं तो एक बार बोलकर रुकें या ठिठकें नहीं।लगातार बोलते रहें जब तक वह सच के रूप में स्थापित न हो जाए।इससे एक फ़ायदा यह भी होगा कि सच और झूठ के बीच जो बरसों से खाई बनी है,वह टूटेगी।समाज से भेदभाव दूर करने के लिए आप प्रेरणास्रोत बनेंगे।
राजनीति में अपनी भारी सफलता से उत्साहित होकर झूठ ने सिनेमा और साहित्य में भी अपनी स्थायी शाखाएं खोल दी हैं।सिनेमा से जहाँ एक ‘चिट्ठी’ का रूप धरकर वह क्रांति का बिगुल बजाता है,वहीं भाषा की ‘ग्लानि’ मुँह पर थोप कर वह साहित्य में संवेदना ले आता है।ऐसे में सच कहीं कोने में दुबका हुआ अपने होने की ‘ग्लानि’ को छुपाता फिरता है।यह झूठ के बढ़ते प्रभाव का ही द्योतक है कि वह ‘ग्लानि’ को भी ‘ग्लैमर’ में तब्दील कर देता है।झूठ इतना चमकदार और सत्कारी होता है कि सड़क पर छुट्टा घूमते हुए घोड़े भी उसके अस्तबल में जा घुसते हैं।
दूसरी तरफ़ सच बड़ा अकेला और ख़ाली-ख़ाली होता है।इसमें किसी भी तरह की रचनात्मकता की गुंजाइश नहीं होती।सच इतना मनहूस है कि उसके साहित्य में प्रवेश करते ही कविता अपठनीय हो जाती है।कहानी उदासी और ऊब पैदा करती है।जबकि झूठ के साथ मनचाहे प्रयोग किए जा सकते हैं।वह कल्पना-शक्ति को विस्तार देता है।वह साहित्य को समृद्ध भी करता है।झूठ को साहित्य,राजनीति और सिनेमा हर जगह से निकालकर देखिए,इतिहास मिटने की नौबत आ जाएगी।इसीलिए सच ठिकाने लगा है और झूठ के सब जगह ठिकाने हैं।यहाँ तक कि अब झूठ बोलने पर ‘कौआ’ भी नहीं काटता।उसे भी अपनी जान प्यारी है।
आधुनिक युग में झूठ बोलना एक कला है।यह सबको आती भी नहीं।हो सकता है जल्द ही इसके ‘कौशल-केंद्र’ अर्थात ‘स्किल-सेंटर’ खुल जाएँ।वहाँ पर नए-नए क्षेत्र और नई ‘टेकनीक’ पर काम हो।झूठ पर शोध-कर्म किए जाएँ।इसके लिए समीक्षाओं और आलोचनाओं के रूप में बहुत बड़ा कच्चा माल हमारे साहित्य में पहले से ही उपलब्ध है।इस तरह साहित्य के ‘बेगारों’ को भी रोज़गार की रोशनी दिखेगी और हमारे साहित्यकार ‘चेलों’ से भरपूर होंगे।
झूठ की महिमा में हमने जो कुछ कहा,निरा झूठ है।झूठ इससे कहीं बहुत आगे पहुँच गया है।पहले झेंपकर झूठ बोला जाता था,अब पूरे सलीक़े के साथ।शायर वसीम बरेलवी ने इसी मौक़े को ताड़ते हुए कहा है, ‘वो झूठ बोल रहा था बड़े सलीक़े से,मैं ऐतबार न करता तो क्या करता !’
तो आप भी उनके कहे का ऐतबार क्यों नहीं करते ?
संतोष त्रिवेदी
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