वे ऊँचे दर्ज़े के आलोचक हैं।हमेशा ऊँचाई में रहते हैं।गोष्ठियों में जाते हैं तो भी ऊँचे दर्ज़े में सफ़र करते हैं।मंच से बोलते समय अपनी ऊँचाई बनाए रखते हैं।साहित्य को ऊँचा ‘उठाने’ में उनका विशेष योगदान है।उन्हीं के सदप्रयासों से साहित्य आज भलीभाँति फल-फूल रहा है।वे तो बस उस फल का सदुपयोग कर रहे हैं।सम्मानों की उन्होंने कभी परवाह नहीं की।उल्टे सम्मान ही उनका लिहाज़ करते हैं।हर संस्था में उनके लोग धँसे हुए हैं।आधे से ज़्यादा लेखक उन्हीं के बनाए हैं।आलोचक जी ने उनके लिए ज़्यादा कुछ नहीं किया।बस,उन सभी को अपनी ‘सुपारी-समीक्षा’ से ऊँचाई प्रदान कर दी।हम ऐसे ‘ऐतिहासिक’ आलोचक से मिलने का लोभ-संवरण नहीं कर सके।कल शाम उनके ‘साहित्य-सदन’ पहुँच गए।
वे घर के बाहर ही मिल गए।दरवाज़े पर ‘नींबू-मिर्ची’ टाँग रहे थे।हमें देखकर हाथ से रुकने का इशारा किया।हम जड़ होकर उनकी आराधना देखने लगे।लगा कि वे साहित्य का ‘कील-बंद’ इंतज़ाम कर रहे हैं।उनके रहते साहित्य का बचे रहना कोई हँसी-खेल नहीं है।बुरी शक्तियों से वह भी आहत होता है।वे उसी का निदान कर रहे थे।अचानक उनके प्रति हमारी श्रद्धा में ज़बर्दस्त उछाल आ गया।जैसे ही आलोचक जी साहित्य-साधना से निवृत्त हुए,हमने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया।उन्होंने भी उच्च उदारता का प्रदर्शन करते हुए मुझे साहित्य में ‘ऊपर’ उठने का आशीष दिया।मेरा रोम-रोम जल उठा।
सामान्य होते ही हमने अपनी उत्सुकता प्रकट की-‘गुरुदेव ! यह ‘नींबू-मिर्ची’ टाँगने का क्रांतिकारी विचार आपको कैसे सूझा ? क्या साहित्य में भी कोई राजनैतिक प्रयोग करने जा रहे हैं ?’ यह सुनकर आलोचक जी ने लंबी साँस ली।यह तो अच्छा हुआ कि हम पर्याप्त दूरी पर थे,वरना उनके श्वास-प्रवाह में हम बह भी सकते थे।वे हमारी टाँगों की ओर देखते हुए बोले, ‘अभी तुम साहित्य से बिलकुल अपरिचित हो।साहित्य का भी अपना एक संस्कार होता है।हम उसका ही निर्वहन कर रहे हैं।और हाँ,‘नींबू-मिर्ची’ से तुम्हें क्यों मिर्ची लग रही है ? यह विशुद्ध साहित्यिक-कृत्य है।टाँगना और उखाड़ना हमारी पुरानी परंपरा रही है।साहित्य में या तो हम किसी को टाँगते हैं या उखाड़ते हैं।हमने यहाँ बड़े-बड़ों को टाँग दिया तो ये ‘नींबू-मिर्ची’ क्या चीज़ है ! और तो और टाँग खींचना तो हमारा लोकप्रिय खेल है।जिस उम्र में तुम गन्ना तक नहीं उखाड़ पाए,अपनी आलोचना से हमने जमे-जमाए लेखक उखाड़े हैं।तब से वे हमें लेखक मानने लगे हैं।लेखक बनने के लिए आलोचक होना कितना ज़रूरी है,इसी से साबित होता है।रही बात राजनैतिक प्रयोग की तो यह सरासर ग़लत है।राजनीति में भले साहित्य के प्रयोग होते हों,साहित्य कभी राजनीति के रास्ते पर नहीं चलता।मुझे ही देखो,कभी राजनीति में दख़ल नहीं दिया।सरकार और सरोकार से हमेशा दूर रहे,तभी साहित्य के सारे सम्मान हमारे गले पड़े।अगर तुम लिखकर क्रांति करने की सोच रहे हो तो यह तुम्हारी नासमझी है।केवल लिखकर अमर होने के दिन गए।सम्मानित होगे,तभी लेखक कहलाओगे।हमने जो भी लिखा है,सम्मानित है।हमारे होते यह इतना मुश्किल भी नहीं है।आओ,अब हमारे साथ साहित्य का रस-पान करो।’
यह कहकर वे एक कक्ष की ओर बढ़ चले।शाम गहरा रही थी और हम भी साहित्य की गहराई में उतराने को उत्सुक थे।चुपचाप श्रद्धापूर्वक उनके पीछे हो लिए।
हम उनके साधना-कक्ष में थे।सोफ़े पर बैठने का इशारा कर वे स्वयं ढक्कन खोलने लगे।औपचारिक ना-नुकुर के बाद हमने भी ‘साहित्य’ के सामने आत्म-समर्पण कर दिया।थोड़ी देर में ही वे ‘मूड’ में थे।अपनी सफलता का रहस्य खोलते हुए बोले, ‘कोई भी साहित्यिक-चर्चा रसरंजन के बिना अधूरी है।इसीलिए साहित्य में रसों का बड़ा महत्व है।जितने भी महान लेखक हुए हैं,साहित्य-सुधा से लैस होकर ही सफल हुए हैं।तुम बिलकुल सही जगह पर आए हो।’
‘पर मैं लेखक नहीं आलोचक बनना चाहता हूँ।कृपया इसी विधि को ठीक से समझा दें !’ हम पर साहित्य का सुरूर तारी हो चुका था।
मेरी बात सुनकर वे कमरे में लगे जाले की ओर देखने लगे।फिर मेरी ओर देखते हुए बोले, ‘वैसे नई पीढ़ी से मुझे कोई उम्मीद नहीं लगती।न वह ठीक से लिखती है,न पढ़ती है।यहाँ तक कि वरिष्ठों का भीलिहाज़ नहीं करती।उनके लेखन में खोट खोजती है।यही वजह है कि मुझे आलोचक बनना पड़ा।ख़ुद की समीक्षाएँ लिखवानी पड़ीं।यह बात तुमसे इसलिए कह रहा हूँ कि तुम ऐसे नहीं हो।तुम में साहित्य की अपार संभावनाएँ देख रहा हूँ।वैसे मैं फोकट में किसी के लिए कुछ नहीं करता पर ‘हम-प्याला’ होने का दायित्व ज़रूर निभाऊँगा।मेरी आलोचना की नई किताब की समीक्षा तुम्हारे नाम से आएगी।तुम्हें कोई कष्ट न हो इसलिए मैंने किताब आने से पहले ही उसे तैयार कर लिया है।इस तरह तुम आलोचक भी बन जाओगे और मेरे उत्तराधिकारी भी !’
अब तक साहित्य पूरी तरह मेरी चपेट में आ चुका था।आलोचक जी ने अतिरिक्त सहृदयता दिखाते हुए अपने ड्राइवर को आवाज़ दी।इसके बाद कब अपने घर पहुँचा,मुझे याद नहीं।आलोचक जी शहर से बाहर हैं।फ़िलहाल,हम साहित्य सँभाल रहे हैं।
6 टिप्पणियां:
लाजवाब :)
जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (21-10-2019) को (चर्चा अंक- 3495) "आय गयो कम्बखत, नासपीटा, मरभुक्खा, भोजन-भट्ट!" पर भी होगी।
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रवीन्द्र सिंह यादव
.. #आलोचक की चपेट में साहित्य ....वाह..!!!! बहुत अच्छा लिखा आपने, बस शुरू किया पढ़ना तो अंत तक पढ़ती ही गई ,बिना लाग लपेट के संवादों की फुकनी ने बहुत प्रभावित किया....!
सादर नमन स्वीकार करें
आलोचक होना भी आवश्यक है क्योंकि हमें हमारी त्रुटियां बताने वाला भी तो कोई होना चाहिए सब अच्छा ही कहते रहेंगे तो सुधार कहां से आएगा एक आलोचक ही हमे हमारी वास्तविकता से परिचय कराता है ।
आपने ऊँचाई से पढ़ा इसलिए समझ नहीं पाए 😀
आलोचक की चपेट में साहित्य ....वाह..!!!! बहुत बढ़िया लिखा है आपने इस लेख के लिए हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ
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