राजधानी में सब कुछ बिलकुल सामान्य चल रहा था।कंटोप लगाए और गरम कोट पहने लोग सर्द मौसम की बातें कर रहे थे।तभी चुनाव आ गए।हर जगह अपने-अपने अलाव सुलगने लगे।कुछ दिन बीत जाने के बाद भी चुनावों में पर्याप्त गर्मी नहीं आ पा रही थी।बुद्धिजीवी शांति की अपीलें तक जारी नहीं कर पा रहे थे।यह इस बार की सर्दी के ज़ोर का असर था या ‘बिकास’ के कमज़ोर होने का,कुछ कह नहीं सकते।ऐसा ही चलता रहा तो चुनाव शांतिपूर्वक गुज़र जाएँगे ! इससे चुनावी-परंपरा का सीधा उल्लंघन होता।‘अलाने’ और ‘फलाने’ ने इसे अपनी तौहीन समझी।चुनावी-अलाव को धधकाने के लिए वे दोनों एक साथ कूद पड़े।देखते-ही-देखते ‘आचार-संहिता’ का अचार बनाने का ‘मिशन’ शुरू हो गया।एक तरफ़ ‘बाग’ तो दूसरी तरफ़ ‘आग’।लोग सर्दी भूलकर ‘काँव-काँव’ करने लगे।ऐसी ही एक तपिश भरी दोपहर को ‘अलाने’ और ‘फलाने’ हमसे टकरा गए।हमने उनसे वहीं ‘टेढ़ी बात’ शुरू कर दी।
सबसे पहले ‘अलाने’ से ही हमने सवाल किया, ‘आपने ठंडे पड़े चुनाव में एकदम से आग भर दी है।लोग अब ‘बिकास-उकास’ भूलकर आपके इस ‘प्रकाश’ की चर्चा कर रहे हैं।आख़िर यह कौशल आपको मिला कहाँ से ?’
हमारी बात सुन अपनी गज भर लंबी ज़ुबान को उन्होंने हमारे माइक तक विस्तारित किया।फिर ज़ोर से फुफकारे, ‘ देखिए,हमने पूरी तरह संवैधानिक मर्यादाओं का पालन किया है।पहले भी हमने संविधान की शपथ खाई थी और अब भी खा रहे हैं।शपथ के साथ हमने रत्ती-भर भी छेड़छाड़ नहीं की है।जनता स्वयं चाहती है कि उसे कोई नया मार्ग दिखाया जाए,हम उसी का निर्माण करने में लगे हैं।ज़ाहिर है इस काम में अनेक बाधाएँ आएँगी,पर हम उनसे निपट लेंगे।इस देश को बाहरी ताक़तों से ज़्यादा सड़क पर बैठे लोगों से ख़तरा है।हम उन्हीं को उठाना चाह रहे हैं।देश अब नए दौर में प्रवेश कर चुका है जबकि कुछ लोग अभी भी पढ़ाई-लिखाई को तरजीह दे रहे हैं।सच तो यह है कि पढ़-लिखकर आदमी ग़ुलाम बनता है जबकि ज़ुबान का ‘सदुपयोग’ कर ज़मीनी नेता।इसलिए हम इस मौलिक आइडिया पर काम कर रहे हैं।उम्मीद करता हूँ कि ‘फलाने’ भी हमारे इस ‘राष्ट्र-निर्माण’ के काम में सहयोग करेंगे।’
बग़ल में बैठे हुए ‘फलाने’ बड़ी देर से कसमसा रहे थे।जैसे ही ‘अलाने’ ने उनका आह्वान किया,वे सुलग उठे, ‘देखिए,इनके पास ‘राष्ट्र-निर्माण’ की अभी केवल योजना भर है जबकि ‘राष्ट्र’ आलरेडी हमारे साथ खड़ा है।वह तो नामुराद ‘बाग़’ ने हमारा रास्ता रोक लिया वरना अब तक हम आसमान में भी सुराख़ कर देते।कुछ लोग कह रहे हैं कि जनता हमसे जवाब चाहती है और हम सवाल नहीं ले पा रहे हैं।यह हम पर बेजा इल्ज़ाम लगाया जा रहा है जबकि हम देश को आगे ले जाने में व्यस्त हैं।देश आगे नहीं बढ़ पा रहा है क्योंकि कुछ लोग रास्ते में जमे हुए हैं।पिकनिक मना रहे हैं।संविधान के साथ खेल रहे हैं।हम किसी और को खेलने नहीं देंगे।यह हमारी ज़मीन है।कुछ लोग चाहते हैं चुनाव तक देश वहीं रुका रहे।’ थोड़ा रुककर पानी पीकर फलाने फिर बोलने लगे, ‘जो हमारे साथ हैं,वे देश के साथ हैं।बजट का हलुआ बनाकर हम बाज़ार और बैंक बचा रहे हैं तो रास्ता रोककर ये वोटबैंक।आने वाले चुनाव परिणाम बताएँगे कि देश किसके साथ है ?’ इतना कहकर वे मेरी ओर ताकने लगे।
हमने उनके इस बयान से निराशा ज़ाहिर की।इसमें कुछ भी ‘थ्रिल’ नहीं था।हमने उनको प्रोत्साहित करते हुए कहा कि सारा देश आपको सुन रहा है।आप कुछ ऐसी बात करें ताकि उसका बतंगड़ बनाने में हमें आसानी हो।हम आपका ख़्याल रख रहें हैं तो आप हमारी भी रेटिंग का ध्यान रखें।इतनी नसीहत के बाद ‘फलाने’ फुल फ़ॉर्म में आ गए।बोले ठीक है।अब पूछिए।
हमने ‘ब्रेक’ ख़त्म करते ही सवाल दाग दिया, ‘यह चुनाव देश भर के लिए नहीं हैं।फिर भी आपका मुद्दा ‘देश’ है।आपके विरोधियों का आरोप है कि आप स्थानीय मुद्दे नहीं उठा रहे हैं ?’ फलाने अपनी जीभ और चौड़ी करते हुए बोले, ‘इसे हम संकुचित सोच कहते हैं।हम बड़ा और दूर का सोचते हैं।इसीलिए बोलते हैं तो भी बड़ा बोलते हैं।हम बसंत,बजट और बटन को एक साथ मिलाना चाहते हैं।जहाँ बसंत से बाग़ में बहार आएगी वहीं बजट से बाज़ार गुलज़ार होंगे और बटन से हम।सबका साथ,सबका विकास यही है।इस तरह के आरोप ‘सब कुछ फ़्री’ बाँटने वाले लगा रहे हैं।सब कुछ बोले तो पानी,बिजली,प्रदूषण,बोली और गोली।यहाँ तक कि लोग अब ‘आज़ादी’ भी फ़्री माँग रहे हैं।जबकि उसकी क़ीमत अदा करनी पड़ती है।अब यह मतदाता को तय करना है कि उसे कौन-सा पैकेज चाहिए ! हम तो बयान भी फ़्री दे रहे हैं।और क्या चाहिए ? बाग़ में अंगूर की जगह अंगार उगा दें ?’
तभी न जाने कहाँ से कार्यक्रम में एक मतदाता घुस आया।उसके हाथ में एक तख़्ती थी।जिसमें लिखा था, ‘हमें जाति और धर्म-फ़्री सियासत और बयान-फ़्री नेता चाहिए।’ हालात बिगड़ता देखकर हमने ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ चला दी, ‘राजधानी का पारा चढ़ा।लोगों को ठंड से निजात मिली।’
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