अपना देश चुनाव-प्रिय देश है।आए दिन चुनाव होते रहते हैं पर जब ये बिहार में हों तो ख़ास बात हो जाती है।अब भले ही बूथ लूटने जैसी रोमांचक वारदातें बंद हो गईं हों पर मज़े के साथ वोट लूटने वाले क़िस्से अभी भी ख़ूब हैं।सबसे ज़्यादा चुटकुले वहीं से आयात होते हैं।अब्बै देखिए,कोई मुंबइया तर्ज़ पर राग निकाले है ‘बिहार में का बा ?’ वहीं दुसरका तान छेड़े है ‘मिथिला में की नै छे’।तीसरा जो तीन में है न तेरह में,वह टेर लगाए है, ‘हमसे वोट लिए हो,का किए हो ?’ और ये सब सुनकर मतदाता कोरोना,बाढ़ और बेरोज़गारी भूल के मस्त नाच रहा है।जिस नेता को देखो,वही उसके लिए वायदों की झोली खोले खड़ा है।एक अदद ‘बटन’ के बदले सब कुछ बँट रहा है ।वह भी बिलकुल मुफ़्त।लॉकडाउन-आपदा में मज़दूरों को घर लाने के लिए जो हाथ खड़े हो गए थे,चुनावी-आपदा में वही हाथ अनायास जुड़ गए हैं।नेताजी बेहद विनम्र और सहिष्णु हो गए हैं।त्याग की भावना इतनी है कि अपना घर-बार छोड़कर अब उन मज़दूरों का कल्याण करने पर आमादा हैं।सबको उम्मीद है कि इन चुनावों में कल्याण तो होगा पर किसका, इस बात का पता ठीक-ठीक किसी को नहीं है।कुर्सी के आगे कोरोना भी हाँफ रहा है।
चुनाव की लीला ही अजब है।भगवान को प्यारे होने वाले मतदाता अचानक नेताओं को प्यारे लगने लगते हैं।भयानक कोरोना-काल में यही मतदाता सोच रहा है कि उसकी बीमारी कहीं नेताजी को न लग जाए,पर वे गले पड़ने को आतुर हैं।चुनाव में जातियों के खोल खुलने से ‘सामाजिक-दूरी’ का निष्ठापूर्वक पालन हो रहा है।विदेशी-बीमारी तो थोड़े दिनों में चली जाएगी पर ये देशी-बीमारी यहीं रहने वाली है।जाति की सेवा किए बिना जनसेवा का कोई ‘स्कोप’ ही नहीं दिखता।किसी को ‘चिराग़’ जलने की उम्मीद है,किसी को ‘लालटेन’ की।इधर ‘कमल’ सबके कलेजे पर ‘तीर’ मार रहा है।जो मतदाता नेताजी की क़िस्मत से बाढ़ और बीमारी से अब तक बचा हुआ है,वह इस आपदा से नहीं बच सकता।वोट देने से पहले उसे कुछ होगा भी नहीं।इससे बचने की कोई ‘वैक्सीन’ भी नहीं बन सकती।
चुनाव से पहले सभी दलों में इतना ‘इधर-उधर’ होता है कि ख़ुद नेताजी को सुबह नहीं पता होता कि अँधेरा गहराते ही वे किस दलदल में होंगे ! चुनाव के ‘बखत’ वे इतना उदार हो लेते हैं कि अपना दिल भी खोलकर दिखा सकते हैं।उनका दिल कितना भी भरा हो,कुर्सी भर की जगह हमेशा बनी रहती है।अच्छी बात है कि यह ‘कुर्सी’ किसी नैतिकता या वैचारिकता की मोहताज नहीं होती।समाज भले न समावेशी हो,सत्ता सबको समेट लेती है।इस लिहाज़ से सत्ता का चरित्र अधिक लोकतांत्रिक है।इसमें सबको उचित हिस्सेदारी मिलती है।चुनावों के आगे-पीछे लोकतंत्र का ‘सच्चा’ प्रदर्शन होता है।सारे गिले-शिकवे कुर्सी देखते ही ज़मींदोज़ हो जाते हैं।यह हमारे लोकतंत्र की ताक़त है !
यहाँ जितनी जातियाँ हैं,उतने दल हैं।सब अपने-अपने ‘समाज’ का उद्धार करना चाहते हैं।यह तभी संभव है,जब उनका उद्धार हो।इसीलिए बिहार में दलों से ज़्यादा ‘मोर्चे’ हैं।जातियों के जाल से बचकर कोई नहीं जा सकता।‘कौन जात हो’ यहाँ के चुनावों की यूएसपी है।मतदाता इससे बच भी गया तो ‘चीन’ और ‘कश्मीर’ उसे नहीं छोड़ने वाले।देश की विदेश और रक्षा नीति इन्हीं चुनावों से तय होनी है।
बिहार में इन दिनों बहार आई हुई है।जिस नेता को देखो,सेवा की ललक से भरा हुआ है।कुछ ने तो पंद्रह-पंद्रह साल सेवा कर ली है,पर सेवा का जज़्बा बरकरार है।बहस अब इनके ‘पंद्रह’ और उनके ‘पंद्रह’ के बीच हो रही है।‘वे’ दस मिनट में दस लाख नौकरियाँ दे रहे हैं तो ‘ये’ उन्नीस लाख।रोज़गार उगलने की यह मशीन ठीक चुनावों से पहले इनके हाथ लगी है।सोचिए,अगर ‘दू-चार’ साल पहले यह ‘मशीन’ आ जाती तो बिहार ही नहीं सारे देश का कल्याण हो जाता !
फिर भी मतदाता घाटे में नहीं रहने वाला है।‘त्योहारी-मौसम’ में उसके पास ज़बरदस्त ऑफ़र हैं।सत्ता में आने पर एक मुफ़्त में ‘टीका’ लगा रहा है तो दूसरा उससे आगे है।कह रहा है कि हम तो चूना भी मुफ़्त में लगा देंगे।हमारी लंबी परंपरा है।इनके ‘टीके’ से वैसे भी सांप्रदायिकता की बू आती है,जबकि हमारा चूना शुद्ध ‘सेकुलर’ है।देश के सारे बुद्धिजीवी भी ‘चूने’ से उम्मीद लगाए बैठे हैं।सोशल-मीडिया से ही ‘तीर’ मार रहे हैं।भ्रष्टाचार और सुशासन अब किसी के लिए मुद्दा नहीं रहा।इस मामले में सबका ‘डीएनए’ एक है इसलिए अब किसी जाँच की ज़रूरत नहीं रही।चुनाव में जनता बँट जाती है और नेता एक हो जाते हैं।देश में जो थोड़ी-बहुत एकता बची है,नेताओं के दम पर ही है।वे मिलकर सेवा करते हैं।जनता की फ़िक्र में बेचारे बीमार हो रहे हैं।सबसे ज़्यादा वैक्सीन की ज़रूरत तो वोटर को है।कहीं वायदों के हमलों से ही वह बीमार न हो जाए ! इसलिए भी वैक्सीन का जल्द आना कोरोना और चुनाव दोनों के लिए ज़रूरी है।बस थोड़ी मुश्किल यह है कि असल ‘इंजेक्शन’ इलेक्शन के बाद मिलने वाला है !
संतोष त्रिवेदी
1 टिप्पणी:
बहुत बढ़िया।
एक टिप्पणी भेजें