किसान घणे बावले हो रहे हैं।एक तो कोई मसला है ही नहीं फिर भी कोई बनता है तो आपसदारी से हम सुलटा लेंगे।वे बिला वजह इसे ‘इंटरनेशनल’ बनाने लग रहे हैं।हमारी सरकार शुरू से चाह रही है कि वो बात करें।बारह बार कर भी चुकी है।चौबीस बार और कर लेगी।बात करने से सरकार पीछे ना हट रही।वह तो किसानों की असल हमदर्द है।किसान जब चाहें,सरकार की बात रेडियो में सुन लें।वह हमेशा तैयार है।बस ‘कील’ भर की दूरी है।इसे लेकर कुछ लोग अफ़वाहें फैला रहे हैं।किसानों के स्वागत में सरकार ने रास्ते में जो ‘फूल’ बिछाए हैं,उन्हें ‘शूल’ बताया जा रहा है।जिनको मोतियाबिंद की बीमारी है,उन्हें उसमें ‘कील’ दिखाई दे रही है।यह सोची-समझी और विदेशी साज़िश है।बाहर के लोग हमें आपस में भिड़ाना चाहते हैं।कुछ दिनों पहले किसानों से भिड़ने की जो खबरें आईं थीं,उसमें सरकार के आदमी नहीं,भोले-भाले स्थानीय लोग थे।लोकतंत्र की वजह से पुलिस उनको रोक नहीं सकी।वह ‘लोकतंत्र’ की रक्षा कर रही थी।लालक़िले की घटना में भी उसने आँख-मूँदकर लोकतंत्र बचा लिया।इत्ता अच्छा लोकतंत्र और कहाँ मिलेगा ? इसे ख़तरा तो उन पत्रकारों से है जो ‘लोकतंत्र की रक्षा’ का सजीव प्रसारण करने लगते हैं।इससे सरकारी काम में बाधा पड़ती है।इससे बचना चाहिए।
एक और ज़रूरी बात।हमें आंतरिक मामलों में बाहरी हस्तक्षेप बिलकुल पसंद नहीं।दूसरे देश के चुनावों में जाकर हम नारेबाज़ी भी नहीं करते।‘अबकी बार,ट्रंप सरकार’ का नारा हमने केवल आपसी सौहार्द और विश्व-बंधुत्व की भावना को बल देने के लिए लगाया था।इस नारे के बाद ही अमेरिका और दुनिया का भला हुआ।वहाँ लोकतंत्र का मंदिर बच गया।हम लोकतंत्र की रक्षा के लिए शुरू से ही प्रतिबद्ध हैं।‘नया मंदिर’ भी बना रहे हैं।किसानों को भी यह बात समझनी चाहिए। लोकतंत्र की वजह से ही सरकार सड़कों पर कील ठोंक रही है वर्ना छातियों पर ठोंकती।ऐसी अतिरिक्त उदारता लोकतंत्र के चलते है।इस बात पर सरकार को शाबाशी मिलनी चाहिए कि उसने ज़रूरत से ज़्यादा लोकतंत्र दिया है।किसानों के पास ट्रैक्टर है तो सरकार के पास टैंक हैं।उन्हें यह समझना चाहिए।
संतोष त्रिवेदी
1 टिप्पणी:
लाजवाब :)
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