कहते हैं मुसीबत अकेले नहीं आती।एक ठीक से जा भी नहीं पाती कि दूसरी और ‘बेहतर’ तरीक़े से दबोच लेती है।पहले वायरस से बचने की मुसीबत थी फिर मुई वैक्सीन आ गई।कह रहे हैं कि पचास-पार वालों को पहले लगेगी।ये भी कोई बात हुई ! लगता है वायरस से तो बच गए पर इससे बचना मुश्किल है।यानी अब पचास-पार होना भी मुसीबत है।सुई चुभने की सोचकर ही दिल दहलता है।रज़ाई में घुसा हुआ उससे बचने की जुगत सोच ही रहा था कि एक और तात्कालिक मुसीबत आ गई।श्रीमती जी ने नहाने के लिए अंतिम चेतावनी जारी कर दी।शहर में हफ़्ते भर से जारी शीतलहर की ख़बर शायद उन तक नहीं पहुँच पाई थी।वे न तो अख़बार पढ़ती हैं और न ही मौसम की खबरें सुनती हैं।केवल मेरे कहने से कुछ नहीं होता।मैं उन्हें पहले भी सूचित कर चुका हूँ कि अभी संक्रांति पर ही तो ‘अस्नान’ किया था।लगता है मेरी इस बात का श्रीमती जी से ज़्यादा मौसम ने बुरा मान लिया।उसने हवाओं को भी अपने साथ मिला लिया।मासूम-सी मेरी जान के ख़िलाफ़ पूरी कायनात जुट गई।मेरी हालत देखिए कि इस ‘अत्याचार’ और ‘शोषण’ के विरुद्ध मैं कोई आन्दोलन भी नहीं कर सकता।इसलिए मैंने श्रीमती जी के प्रस्ताव पर दसवीं बार गंभीरता से सोचना शुरू कर दिया।
पहले तो रज़ाई ही मुझे नहीं छोड़ रही थी।मुझसे ज़्यादा तो वह बेचारी ठंडी थी।बचपन में पढ़ी ‘त्याग’ और ‘बलिदान’ की कहानियों को एक-एक कर याद किया।मैंने रज़ाई से क्षमा माँगी और ‘आत्म-बलिदान’ के लिए ख़ुद को सशरीर प्रस्तुत कर दिया।जैसे ही हमारे चरण संगमरमरी-फ़र्श पर पड़े,अंगद के पाँव की तरह वहीं जम गए।हमने मन ही मन ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ शुरू कर दिया।थोड़ी संजीवनी पाकर मैं स्नानघर के दरवाज़े की ओर बढ़ा।घटनास्थल तक मैं ऐसे पहुँचा जैसे कसाई बकरे को जिबह के लिए पकड़कर ले जाता है।मामला केवल नहाने या सफाई भर का होता तो कोई न कोई तोड़ मैं निकाल ही लेता पर बात यहाँ तक पहुँच गई थी कि हमारे न नहाने से यदि कोई संक्रामक बीमारी फ़ैली तो उसका सीधा-सीधा जिम्मेदार मैं ही होऊँगा।घर के बाहर का मसला होता तो ‘जल-संरक्षण’ पर गर्म बयान देकर निकल लेता पर यहाँ बात बिलकुल निजी थी और संवेदनशील भी।
मेरे सामने अब कोई चारा न था।केवल आधी बाल्टी पानी था जो बड़ी देर से मुझे ललकार रहा था।नई मुसीबत से बचने की गरज से उसे एक नज़र देखने की कोशिश की।तुरंत ही बाल्टी की ओर से नज़रें हटाकर बाहर की ओर देखा पर कोहरे की घनी चादर ने हमें वहीँ ठिठका दिया।बाहर की धुंध के बजाय मुझे बाल्टी के अंदर का खुलापन ज्यादा अच्छा लगा।इससे मुझे बड़ी हिम्मत मिली,जिसे साथ लिए मैं बाथरूम के अंदर कूद पड़ा।पानी से अध-भरा डिब्बा पहले मैंने अपनी हिम्मत पर ही उड़ेला,वह वहीं जम गई।उँगलियों ने आपस में सहयोग करने से एकदम इनकार कर दिया।अभी तक मैं ठीक से पानी के संसर्ग में आया भी नहीं था कि बाहर से श्रीमती जी की नसीहत आई, ‘अजी सुनते हो ! साबुन वहीँ रखा है,उसे भी आजमा लेना।इससे वायरस तुरंत मर जाता है।’ इतना सुनते ही मेरे बचने की सारी उम्मीदें ध्वस्त हो गईं।हाँ,मेरे साहस को थोड़ी गर्माहट ज़रूर मिली और मैंने झट से पानी का दूसरा डिब्बा साबुन पर ही न्यौछावर कर डाला।बाल्टी में अभी भी काफ़ी पानी था जो मुझे लगातार घूर रहा था।बचे हुए पानी में मुझे अपने अन्तःवस्त्र भी भिगोने थे,इसलिए मैंने अंत में इसका भी ख्याल रखा।एक भले समाजवादी की तरह पूरे मन से इसे अंजाम दिया।इस ‘कृत्य’ में हमने दाएँ और बाएँ दोनों हाथों की मदद ली।जब बाथरूम में मेरे नहाने के सारे साक्ष्य मौजूद हो गए ,‘अच्छे दिनों’ के तौलिए में लिपटकर मैं बाहर आ गया।
बाथरूम के बाहर जश्न का माहौल था।बच्चों ने हमारे स्वागत की पूरी तैयारी कर रखी थी।रेडियो में देशभक्ति के गाने बज रहे थे।श्रीमती जी ने गोभी के गरम पकौड़ों के साथ गिलास भर चाय हमारे सामने पेश कर दी।पकौड़े खाते हुए मैं सोचने लगा कि देश में हमारे नहाने से भी ज्यादा ज़रूरी और भी काम हैं पर उनकी किसी को फ़िक्र नहीं।कुछ क़ानून स्थगित हैं,कुछ की वैक्सीन स्थगित है।एक पार्टी ने तो ‘ठंड’ के प्रकोप से बचने के लिए अपने अध्यक्ष का चुनाव गर्मियों तक स्थगित कर दिया है।फिर मेरा नहाना कुछ दिनों के लिए क्यों नहीं स्थगित हो सकता है ? ग़लती से यही सवाल मैंने श्रीमती जी से कर दिया।
श्रीमती जी पहले से ही तैयार बैठी थीं।कहने लगीं, ‘लगता है तुम्हारे दिमाग़ में सर्दी ज़्यादा चढ़ गई है जो सर्र-बर्र बक रहे हो।इसीलिए कहती हूँ,रोज़ नहाया करो।इम्यूनिटी मज़बूत होगी और दिमाग़ भी ठीक रहेगा।’
अचानक मेरी नज़र अख़बार की ओर गई।पहली ही खबर थी, ‘ठंड ने बीस साल का रेकार्ड तोड़ा।दस लोग मरे।’ इतना पढ़ते ही पकौड़े छोड़कर मैं रज़ाई में फिर से समा गया !
संतोष त्रिवेदी
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