अभी हाल में पता चला कि इत्र केवल सूँघने के काम नहीं आती।नेता यदि काबिल हो और संघर्षरत हो तो इसके ज़रिए सत्ता भी सूँघी जा सकती है।गौरतलब है कि सत्ता की महक सामान्य नहीं होती।सूँघने वाले दूर से ही इसकी महक पा लेते हैं।एक युवा नेता को यह महक इतनी भायी है कि उसने सत्ता-प्राप्ति के किए समाजवादी ब्रांड की इत्र ही लाँच कर दी।वे दिन हवा हुए जब चुनावों से पहले घोषणा-पत्र और संकल्प-पत्र पेश होते थे।नेता लोग काम के बारे में बातें करते थे।विकास और अच्छे दिन लाने का अभियान चलता था।पर इन सबकी दुर्दशा देखकर अब रणनीतियाँ बदल रही हैं।नेताजी समझ गए हैं कि जनता भी उनकी तरह समझदार हो गई है।इसलिए उसे अब बहकाने की जगह महकाने की योजना पर काम शुरू हो चुका है।हो सकता है उन्हें यह आइडिया ‘फूल’ वालों की सफलता देखकर आया हो।इसलिए वे ‘फूल’ निचोड़ने के लिए बेचैन हो उठे हैं।जनता के बीच ‘महक’ फैलाना इसी का अगला कदम है।ख़बर है कि चुनावों से पहले ऐसी इत्र पाकर नेताजी इतरा रहे हैं।
सुनने में यह भी आया है कि जो काम नेताजी के लिए उनके बयान नहीं कर पा रहे थे,अब इत्र करेगी।यह इत्र भी कोई सामान्य क़िस्म की नहीं है।परिवार की तरह यह भी पूर्ण समाजवादी निकली।समाजवादी-परंपरा में जिस तरह सत्ता अपने परिवार में बिना किसी संकोच के अब तक बँटती रही है,वैसे ही इस समाजवादी-महक को भी वे जनता में बाँटने के लिए प्रतिबद्ध हैं।सच तो यह है कि आधुनिक काल में सबसे ज़्यादा महक सत्ता में ही होती है।कई बार जब यह पास नहीं होती तो सिर्फ़ उसकी महक ही मदहोश कर देती है।सत्ता की महक में बड़े बड़े बहक जाते हैं।यह तो फिर भी युवा नेता हैं।सामने अथाह संभावनाएँ महक रही हैं।अब समाजवाद अपने ‘महक-केंद्र’ पर इत्मिनान से बैठकर केवल इत्र की शीशियाँ बँटवाएगा।
इस ख़बर की पड़ताल करने और करामाती इत्र का असर जानने के लिए हम इसे सूँघते हुए सीधे ‘महक-सेंटर’ पहुँच गए।नेताजी को मेरे आने की भनक लग चुकी थी,सो उन्होंने पूरे सेंटर में इत्र छिड़कवा दी थी।इसका फ़ौरी फ़ायदा तो यह हुआ कि उनके शासन-काल की जितनी दुर्गंध थी,पलक झपकते ही सुगंध में बदल गई।और तो और,समाजवादी-पैक में लिपटी ख़ुशबू मेरे भी ज़हन में अंदर तक छा गई।मदहोश होने से ऐन पहले मैंने युवा नेता को कुछ सवाल सुँघाए, जिन्हें उन्होंने अपने इत्र से ही ‘छू’ कर दिया।
‘इस इत्र के बारे में जनता जानना चाहती है कि इससे उसे क्या फ़ायदा होने वाला है और आपके दिमाग़ में यह नायाब आइडिया आया कैसे ?’ मैंने उत्तर सूँघने की कोशिश की।नेताजी ने पहले तो अपने ‘हल्ला-बोल’ दस्ते की ओर देखा फिर मुझसे मुख़ातिब हुए,‘देखिए,बड़े दिनों बाद हमारे हाथ दूर की कौड़ी लगी है।इधर अच्छे दिनों से घिरी जनता को न मँहगाई से फ़र्क़ पड़ रहा था न क़ानून-व्यवस्था से।इसीलिए हमने इन्हें मुद्दा ही नहीं बनाया।हमारे कार्यकर्ताओं ने सलाह दी कि मँहगाई के बजाय महक पर ध्यान देने की ज़रूरत है।सो हमने बक़ायदा ‘महक-सेंटर’ खोल दिया है।यहीं से पूरे प्रदेश को महकाने की हमारी योजना है।अब जनता इस महक से मदहोश होकर हमारे पुराने पाप भूल जाएगी।जो लोग अब तक नफ़रत करते रहे हैं,वे इसे सूँघते ही हमसे मुहब्बत करने लगेंगे।इसलिए हम इस बार चुनाव नहीं लड़ रहे हैं,माहौल बदल रहे हैं।’ इतना कहकर नेताजी इत्र की शीशियों को हसरत भरी निग़ाह से देखने लगे।
‘पर सामने वाले तो ‘मंदिर’ में भी ‘फूल’ चढ़ा रहे हैं।कह रहे हैं कि वे अब पूरी तरह से पापमुक्त हो चुके हैं।तेल और रेल के दाम घटाकर उन्होंने पहले ही देश-प्रदेश को महँगाई-मुक्त करने का ऐलान कर दिया है।ऐसी पुण्यात्माओं से टक्कर लेने के लिए आपकी इत्र कितनी कारगर होगी?’ मैंने स्थिति साफ़ करने की गरज से पूछा।
‘क्यों नहीं।इस इत्र को बड़े शोध के बाद लाल और हरे का पैक में तैयार किया गया है।ये महज़ रंग नहीं बल्कि हमारी सोच का प्रतीक हैं।शीशी भले ही समाजवादी हो,पर इसमें साम्यवाद और सेकुलरवाद दोनों का फ़्लेवर है।जनता जाति और धर्म को लेकर इन दिनों ख़ूब जागृत है।उसे तो अब मँहगाई,विकास और देशभक्ति का असली पता तक मालूम है।जब ‘फूल’ वाले राष्ट्रवाद का लेप लगाकर मँहगाई और बेरोज़गारी दूर कर सकते हैं तो हम फूल निचोड़कर बनी महक से क्यों नहीं? जनता अब हमसे बचकर नहीं जा सकती।उसे हमारी महक ज़रूर अचेत कर देगी।हम नफ़रत मिटाकर रहेंगे।’ नेताजी ने दोनों हाथों में इत्र की शीशियों को लहराते हुए कहा।
बातचीत हो ही रही थी कि अचानक ‘महक-सेंटर’ में अफ़रा-तफ़री मच गई।पता चला कि स्थानीय फूल वालों ने इत्र की महक पर अपना दावा ठोंक दिया है।उनका कहना है कि समाजवादियों ने ‘पेटेंट’ क़ानून का सरासर उल्लंघन किया है।महक पर ‘फूल’ का सहज और स्वाभाविक अधिकार है।इस नाते सत्ता पर भी।वे चाहें तो बोतल में ‘जिन्न’ भरकर बेच सकते हैं,पर ‘महक’ क़तई नहीं।
संतोष त्रिवेदी
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