नैशनल दुनिया में १५/०९/२०१२ को !
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जनसंदेश टाइम्स में १३/०९/२०१२ को प्रकाशित आई नेक्स्ट में १८/०९/२०१२ को ! |
कई दिनों बाद किसी काम से निगम के दफ्तर जाना हुआ.घुसते ही दरवाजे पर हिंदी जी मिल गईं,एकदम प्रफुल्लित और फुल मूड में ! मैंने आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता के साथ पूछा,’कहो प्रिये ! आज अचानक इतने दिनों बाद कैसे नज़र आई हो और पूरा खुल के छाई हो ? उन्होंने अपनी चहकन-मुद्रा को और विस्तार दिया और बोलीं,’भई ,मैं यूँ ही सामान्य दर्जे की नहीं हूँ.मेरा भी क्लास है.मैं साल भर तो कार्यालय में अत्यंत गोपनीय कमरे में कबाड़ जी के पड़ोस में पड़ी रहती हूँ.मेरी काया को शीत-घाम से बचाने के लिए सबसे बचाकर और छुपाकर रखा जाता है.मैं तो इतनी गुप्त और सुप्त रहती हूँ कि स्वयं को भी भूल जाती हूँ पर हमारे नाम पर पलने वाले परजीवी जी इस मौसम में हमें झाड़-पोंछकर निकाल लाते हैं .’
मैंने उनकी बात को समझने का प्रयास करते हुए सवाल जड़ा ,’तो आज ही के दिन के लिए आपको सरप्राइज़-गिफ़्ट की तरह निकाला गया है क्या..?वे बड़े गर्वीले अंदाज़ में बोलीं,’देखिए सरकार जी ने हमारे नाम के अधिकारी तक तैनात कर रखे हैं.वे बेचारे पूरे साल सितम्बर के महीने का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं क्योंकि बाकी दिनों में उनके चरागाह सूखे रहते हैं.हमारे कबाड़ वाले कमरे से निकलते ही उनके घर-आँगन और पूरे परिवार में हरियाली छा जाती है.हमारा नाम ले-लेकर वे दिवस,सप्ताह या पखवाड़ा मना डालते हैं.अगर अधिकारी जी की पहुँच ऊपर तक अच्छी हुई तो पूरा महीना ही हमारे नाम कर देते हैं.इसलिए मैं भी पूरी सज-धज और ठसक के साथ आती हूँ.’
मैंने आगे कहा,’क्या आपको यह महसूस नहीं होता कि यदि आप पूरे साल ऐसे ही सर्वत्र छाई रहें तो ज़्यादा अच्छा रहेगा ?’ उन्होंने पूरी दृढ़ता और आत्म-संतोष के साथ ज़वाब दिया,’बिलकुल नहीं,मैं तो और खुश हूँ.पिछले पैंसठ सालों से जहाँ आदमी जी अपनी एक अदद खुशी को तलाश रहे हैं,वहीँ सरकार जी ने कम-से-कम हमारे लिए हफ्ता न सही साल तो बाँध ही दिया है.मैं साल में एक बार अनिवार्य रूप से खुश हो लेती हूँ.इससे हमारे भक्तों को भी कई तरह के पुरस्कार ,सम्मान मिल जाते हैं.हम पूर्ण रूप से संतुष्ट हैं जी ! इससे ज़्यादा तो आज़ादी के समय हमारे महापुरुष जी को भी यकीन नहीं था.शुक्र मानिए कि साल में हम गाजे-बाजे और भारी-भरकम बजट के साथ प्रकट हो जाती हैं.हमारे आने की खुशी में अकादमी जी और संस्थान जी भी गतिमान हो जाते हैं.’
मैं जिस काम से आया था,उसकी जल्दी में मैं आगे खिसकने लगा तो हिंदी जी ने झट से मेरा रास्ता रोक लिया,’अजी आप का काम इस समय होगा भी नहीं.पूरा कार्यालय हमारा महोत्सव मना रहा है इसलिए अंग्रेजी जी छुट्टी पर हैं और आपको पता है कि आपके सारे काम उनके बिना होंगे नहीं.’मैंने कहा ,लेकिन पूरे साल अंग्रेजी जी हुकूमत चलाती हैं और अब आपके लिए आरक्षित समय पर भी....’, बात काटते हुए हिंदी जी बोलीं,’आप भूल रहे हो,वे अंग्रेजी हैं,पैदाइशी ‘जी’हैं.हमारे नाम के आगे तो शिष्टाचारवश ‘जी’ लगाना पड़ता है,नहीं भी लगाओगे तो कुछ बिगड़ता नहीं है,पर यदि उनके साथ छेड़छाड़ की तो आपका एक भी काम नहीं होने वाला. ऐसा सुनते ही मैं धम्म से उन्हीं के पास सोफ़े पर पसर गया !
... दैनिक मिलाप में १४ सितम्बर को !
2 टिप्पणियां:
बढ़िया लगा आपका व्यंग्य। वक्त पर कहने/छपने के लिए बहुत बधाई।
आभार ।
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