हरिभूमि में १७/०९/२०१३ को |
१७/०९/२०१३ को 'नेशनल दुनिया' में ! |
आखिरकार उन्होंने लाल किले से चढ़कर भाषण दे ही दिया। ऐसा करके
उन्होंने साबित कर दिया कि सपने देखना नहीं चाहिए,जितनी जल्दी हो ,उन पर अमल कर अपनी मुराद पूरी कर लेनी चाहिए । समय भी बड़ा कठिन है,पता नहीं, कब कौन किसको गच्चा दे जाए ? थोड़े दिनों पहले ही उनको यह आभास हो गया था कि सपने देखने से आदमी बर्बाद
हो जाता है। उनका यह कहना अकारण भी नहीं था। यह उन्होंने लम्बे अनुभव से सीखा है।
वे अपने अग्रज के सपने देखने और उनका हश्र बखूबी समझ चुके हैं,इसलिए कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते थे। यह सपने
देखने का नहीं पूरा करने का समय था,इसलिए उनके अनुयायी
जी-जान से इस काम में जुट गए हैं।
सपनों में ताजमहल बनाने की कोशिशें कई लोगों ने की हैं और कुछ लोगों
ने उसे मूर्त रूप भी दिया है। लाल किले पर चढ़कर झंडा फहराने का सपना भी आज़ादी के
बाद से लगातार देखा जा रहा है,पर उसे मूर्त रूप देने की कोशिश किसी ने नहीं की।
चूँकि वे सबसे अलग दिखने वाली पार्टी के नेता हैं और फेंकने के काम में महारत
हासिल कर चुके हैं ,इसलिए यह उनके ही बूते की बात थी कि लाल
किले पर चढ़कर बोलने की कल्पना को साकार कर दिया जाए। खबर है कि देश का कारपोरेट
उनके साथ है,इसीलिए उनके इस काम में कोई मुश्किल भी नहीं आई
।
वैसे तो उनका रथ समय से काफ़ी पहले दिल्ली की ओर कूच कर चुका है पर
उनकी पार्टी के ही कुछ लोगों की मंशा ठीक नहीं है। बार-बार लग रही अड़ंगेबाजी से
तंग आकर असली लाल किला पहुँचने से पहले ही बीच रास्ते में उनके भक्तों ने एकठो लाल
किला बनवा दिया । वे उस पर चढ़कर अपने अंदरूनी और बाहरी विरोधियों को संकेत देना
चाहते थे कि वे केवल फेंकते ही नहीं, ’फेक’ लाल किले पर चढ़ भी सकते
हैं। उनके इस कदम की भनक उनके अग्रज को भी नहीं लगी । अब वे बैठे माथा पीट रहे हैं
कि मुआ,यह आइडिया उनके दिमाग में क्यों नहीं आया ? उनके तो नाम में भी लाल लगा है ।
बहरहाल,वे भी अब लाल किले से बोलने वाले नेता बन गए हैं। कुछ लोगों को लगता है कि
वह तो नकली था,सो उससे क्या ?जो असली
लाल किले से बोलते हैं,उन्होंने कौन-सी क्रांति ला दी ?
लाल किले पर चढ़कर बोलने से किसी की आत्मा पर किसी प्रकार का दबाव
नहीं बनता और न ही बोले हुए को पूरा करने का दायित्व होता है। जब बोलने का हश्र
दोनों जगह एक जैसा ही होना है तो क्या फर्क पड़ता है असली और नकली लाल किले में ?इसलिए वे तो बोलकर ही खुश हैं।
उनके कुछ सलाहकारों ने सलाह दी है कि जब तक दिल्ली दूर है,गाँधीनगर को ही
दिल्ली का नाम दे दिया जाय। इसके साथ ही वे सामने वाली गली का नाम 'रेसकोर्स रोड' रख कर तथा अपने आवास पर ‘प्रधानमंत्री’ की नामपट्टिका लगाकर सपनों के पूरे
होने का अहसास कर सकते हैं।
3 टिप्पणियां:
सबके अपने स्वप्न अनोखे,
स्वप्नों को ढोने वाले भी,
और उसी में राग तानते,
उन पर नित रोने वाले भी।
वाह!
वाह!
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