बुधवार, 11 दिसंबर 2013

झाड़ू,तूने क्या किया ?


11/12/13 को जनवाणी में
 

घर-बाहर की सफाई करते-करते झाड़ू कब सत्ता की कुर्सी तक आ गई,पता ही न चला।कुर्सी सामने रखी है,पर उस पर बैठ नहीं सकते । टनों लड्डू तुलकर अपने हजम होने की राह तक रहे हैं,पर झाड़ू ने सबके अरमानों को बुहार दिया है।जीतकर भी हारने का अहसास हो रहा है।हार की जीत तो कई बार सुना होगा पर आज जीत को हार महसूस हो रही है।बड़ी मिन्नतों के बाद,बाप-दादों का वास्ता देकर टिकट मिली,गली-गली ख़ाक छानी,विजयश्री की मालाएं भी पहन लीं,पर नामुराद झाड़ू ने कहीं का न छोड़ा।बीच रास्ते में अड़ गई।न आगे बढ़ रही है न बढ़ने दे रही है।इससे भले तो वे थे,जो खेत रहे।सामने लड्डुओं का थाल सजा रखा है पर चखने का मन नहीं कर रहा।दोस्तों और कार्यकर्ताओं की दुआएँ सुई की तरह बदन में चुभ रही हैं।कैसी मुसीबत है कि बधाई भी भरे मन से ली जा रही है,जो झाड़ू के मारे न उगलते बन रही है,न निगलते।

झाड़ू की मार चौतरफ़ा पड़ी है।जिस हाथ ने उसे नाचीज़ और नाकुछ समझा था,उसी ने उसकी हड्डी-पसली तोड़ दी।हाथ पर सीधा हमला हुआ और वह आईसीयू में पहुँच गया है ।अंदर से बार-बार विज्ञप्ति आ रही है कि जल्द ही वह स्वस्थ होकर आएगा।तब तक खपच्चियों और टांकों से वह पूरी तरह उबर लेगा।वह झाड़ू से सीख लेकर अपनी मानसिक दशा भी बदलने को तैयार है।हाथ की चोट गहरी है।वो पहले तो फूल से अधमरा हुआ,बाद में झाड़ू की मार से हिलना-डुलना भी बंद हो गया ।वैसे जानकारों ने छह महीने बेड-रेस्ट की सलाह दी है पर जनसेवा का आदी रहा हाथ हार मानने को तैयार नहीं है।

झाड़ू की मार फूल पर भी पड़ी है।वह जीत के हार को पहनने ही वाला था कि झाड़ू ने रास्ता छेंक लिया।फूल को अचानक ऐसी झाड़ूगीरी की उम्मीद नहीं थी।पंद्रह सालों के वनवास के बाद फिर से पुनर्वास का इंतजार करना कितना दुखदायी होता है,यह दर्द झाड़ू क्या जाने ? वो तो कल की आई हुई नव-विवाहिता जैसी है।फूल को अब तक यही जानकारी थी कि झाड़ू को हाथ ने थाम रखा है पर उसकी मार ऐसी अदृश्य होगी,सोचा न था।फूल खिला मगर कुर्सी तक शूल बिछ गए और वह फूल कर कुप्पा भी न हो पाया।ऐसे में जीत का हर्ष कैसे मनाया जाए,उसे समझ नहीं आ रहा है ।

झाड़ू स्वयं हतप्रभ है।वह घर-आँगन से सबको बुहारकर खुद भी घर के बाहर खड़ी है।हाथ को चोट पहुँचाकर वह गर्वित तो है पर फूल से काँटे का मुकाबला करके वह खुद रुक गई है।इतनी ज्यादा सफाई की उम्मीद खुद झाड़ू को नहीं थी।कुर्सी थोड़ी दूर पर दिख रही है पर उस तक उसे पहुँचाने वाला कोई हाथ नहीं है।उसे बिखरना मंज़ूर है पर फूल का सहारा नहीं स्वीकार है।यही हाल फूल का है।उसे इस बात की कसक है कि हवा थोड़ा और तेज़ होती तो वह कुर्सी तक आसानी से पहुँच जाता।ऐसे में वह पड़े-पड़े मुरझा सकता है पर झाड़ू के हाथ नहीं लगने वाला ।तब से दोनों घर के बाहर ही खड़े हैं।मुश्किल यह है कि यदि इस बीच फिर कूड़ा-करकट इकठ्ठा हो गया तो झाड़ने-बुहारने और खिलने-फूलने का मौका दुबारा मिलेगा भी या नहीं ? यह सारा ‘टंटा’ झाड़ू की वज़ह से ही खड़ा हुआ है,इसलिए जिम्मेदार भी वही है।ईश्वर, झाड़ू की ऐसी मार से सबको बचाए !

2 टिप्‍पणियां:

girish pankaj ने कहा…

पूरा पढ़ लिया। यह झाड़ू-मार व्यंग्य ठीक ही है.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

राजनीति के रोचक मोड़..

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