07/05/2014 को नई दुनिया में। |
वो नाम के ही नहीं काम के भी राजा हैं।फ़िलहाल राजपाट छोडकर चुनाव और चिंतन में लगे हैं।चुनाव से उन्हें कोई खतरा नहीं है क्योंकि चुनावों से प्रजा डरती है,राजा नहीं।रही बात चिंतन की,सो वे इस समय ख़ूब कर रहे हैं।एक खबर आई है,जिसमें उनके ताजे चिंतन की दिशा का पता चलता है।उन्होंने स्वयं को दूरसंचार घोटाले में लपेटे जाने का बड़ी कुशलता और दार्शनिक चिंतन के साथ बचाव किया है।उनका कहना है कि बेईमानी का एक भी रुपया उनके पास नहीं है और वे यह साबित कर सकते हैं।इस बयान को सुनकर जाँच एजेंसियां सकते में हैं पर हमें उनकी बात सही लगती है।
उनका यह कहना कि बेईमानी का एक रुपया उनके पास नहीं है,बिलकुल सच है।पहली बात यह है कि रुपया उनका है न कि बेईमानी का।अगर बेईमानी का होता तो उनके पास कैसे रहता ? दूसरी बात यह कि जाँच एजेंसी उनके सभी बैंक अकाउंट चेक करवा ले,एक भी चेक बेईमानी का नहीं निकलेगा।’काम के बदले अनाज योजना’ तो उनकी सरकार की हिट-योजना रही है।उन्होंने तो बस उसमें सक्रिय भागीदारी निभाई तो वे कहाँ से दोषी हो गए ?अनाज को तो सीधे बैंक में डाला नहीं जा सकता इसलिए वह गाँधी-मुद्रा में वहाँ विराजमान है।यह सारा रुपया बेईमानी का नहीं बल्कि उनकी गाढ़ी कमाई का है।अगर ऐसा नहीं है तो किसी को भी चुनौती है कि वो साबित करके दिखाए ?
रूपया वैसे भी नेताओं के पास अपने मूल रूप में नहीं होता।कई लोग अपने रूपये को इसी फार्मूले के तहत स्विस बैंक में फेंक देते हैं।यह आचरण बताता है कि उनमें रूपये के प्रति कितना वैराग्य है ।कुछ समझदार लोग हैं जो इसे ज़मीन या रजाई-गद्दों में गाड़ देते हैं,जिससे बखत-ज़रूरत उनके काम आ जाता है।सबसे चतुर तो वे खिलाड़ी हैं जो रूपये को ज़मीन में ट्रांसफर कर देते हैं और दो-चार साल में वह ज़मीन सोना बन जाती है।इस सबसे यही सिद्ध होता है कि नेताओं को रूपये की ज़रूरत नहीं बल्कि रूपये को नेताओं की ज़रूरत होती है।वही सबसे अच्छी तरह से इसकी देखभाल कर सकते हैं। इस दौरान बेईमानी इन रुपयों पर से अपना दावा हटा लेती है और रुपया विशुद्ध ईमानदारी का हो जाता है।
महत्वपूर्ण बात है कि रूपया चलता-फिरता और लुढ़कता तो है पर बोलता नहीं है।यह हवाला से आ सकता है पर हवालात में नहीं जा सकता और न गवाही दे सकता है ।रुपया इधर से उधर तो जा सकता है,पर न बरामद हो सकता है और न ही नदारद।जब रुपया अपने स्वामी के प्रति निष्ठावान रहता है तो दूसरा इसे कैसे साबित कर सकता है कि यह बेईमानी का है।चुनाव के समय बेईमानी वैसे भी मुँह छिपाए घूम रही है।ऐसे में रूपये का वास्तविक दावेदार नहीं मिलता और ट्रकों रुपया सड़क पर या पुलिस थानों में अपनी शरण मांगता फिरता है।
इस तरह हम पूरी तरह यह मानने को मजबूर हैं कि रुपया राजा का नहीं अंततः प्रजा का ही है।नेता बस उसकी देखभाल और समृद्धि में जुटे हैं।अब इसको लेकर किसी के पेट में मरोड़ उठता है तो उठता रहे मगर सनद रहे कि करोड़ रुपयों की डकार महज़ देश-सेवा है और कुछ नहीं।
2 टिप्पणियां:
shandar...jandar...
बहुत बढ़िया ।
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