रविवार, 2 अगस्त 2015

हमें चाहिए पूरी आजादी !

गहरी नींद में सोया हुआ था कि अचानक श्रीमती जी ने झिंझोड़ दिया,’अब उठोगे भी शालू के पापा !सूरज सिर पर चढ़ आया है और तुम हो कि अभी चादर ताने पड़े हो !’


चैन से सोने भी नहीं देती हो भागवान ! कम से कम छुट्टी के दिन तो नींद पूरी कर लेने दिया करो !’चादर के अंदर से ही हमने जवाबी हमला किया।मेरे इतना कहते ही श्रीमती जी ने चादर को मुझसे मुक्त किया और मैं हडबडाकर उठ बैठा।’तुम्हें सोने के सिवा कुछ और भी आता है ? देखो,देश आज़ाद हो गया है।प्रधानमंत्री ने अभी-अभी लालकिले से झंडा फहराया है।और तो और चुन्नू के पापा सुबह-सुबह उठकर अपने बरामदे में झाड़ू लगा रहे हैं।एक तुम हो कि अपना मुँह तक नहीं साफ़ कर सके ? ‘ बात अब बहुत पर्सनल हो चुकी थी। हम झट से बिस्तर का परित्याग करके श्रीमती जी के सामने इस तरह तनकर खड़े हो गए,जिससे हमारा स्वाभिमान अपने शुरुआती लेवल पर आ गया ! हमने भी पलटकर जवाब दिया,’ख़ाक आज़ादी का दिन है ! हमें सोने तक की आज़ादी नहीं है,फ़िर हमें कौन-सा झंडा फहराना है ? रही बात सोने की,हमने तुम्हारे सोने पर तो कभी ऐतराज किया नहीं।अभी पिछले हफ्ते ही हमारी आधी तनख्वाह तुम्हारे इसी शौक की भेंट चढ़ गई ! और बात करती हो चुन्नू के पापा की,तो ज़रा एक नज़र चुन्नू की मम्मी पर भी डाल लिया करो।एक वो हैं जिनका चेहरा हमेशा खिला-खिला रहता है और एक तुम हो,हमेशा खुले मुँह से ही हमारा स्वागत करती हो !ऊपर से हमें बोलने तक की आज़ादी नहीं है।’

इतना सुनते ही श्रीमती जी कातर नेत्रों से हमें देखने लगीं।पता नहीं आज़ादी के दिन का प्रभाव था या हमारी सूरत देखकर उनको रहम आ गया,वे पहली बार बिना कोई जवाब दिए किचन में घुस गईं और हम शौचालय में। अक्सर सुकून के कुछ पल यहीं गुजरते हैं।हमें अचानक वह विज्ञापन याद आ गया जिसमें कहा जाता है,’जहाँ सोच,वहीँ शौचालय' पर हमें लगा कि इसमें भी खोट है ।शौचालय में ही कई बार हमने बड़ी ऊँची सोची है ।फ़िर यहाँ न कोई खतरा होता है ,न किसी का पहरा।हम अपनी आज़ादी को लेकर शुरू से ही बेहद संवेदनशील रहे हैं इसलिए इस पर सोचना शुरू कर दिया ।हमें महसूस हुआ कि इस वक्त देश में कश्मीर से भी बड़ी समस्या यही है।हम हर वर्ष देश की आज़ादी का ज़श्न मनाते हैं।गली और मुहल्ले में आज़ादी का परचम जोर-शोर से फहराते हैं।एक ओर इसके महत्व को समझाने के लिए जगह-जगह सेमिनार और जलसे किए जाते हैं पर पति नामक जीव अपने घर में ही आज़ाद नहीं है।यहाँ तक कि भ्रष्टाचार,जमाखोरी और लूट-पाट करने की देशव्यापी आज़ादी हमें बाय डिफॉल्ट मिली हुई है।अब तो बलात्कार और अपहरण इतने आत्मनिर्भर हो गए हैं कि इन्हें आज़ादी का मुँह ताकने की भी ज़रूरत नहीं रह गई है।आज़ादी की किरण केवल हम पतियों तक ही तक नहीं पहुँच पाई है।न जाने कब से वह दरवाजे के उस पार है।

हम सोचते ही जा रहे थे .हमें लगा कि आज़ादी की बुनियादी ज़रूरत घर से ही शुरू होती है ।यदि परिवार का मुख्य चरित्र पति ही घर पर अपने को दबा-कुचला और शोषित महसूस करने लगे तो घर के बाहर उसकी आज़ादी के कोई मायने नहीं हैं।जिस पति को पत्नी के आगे ‘दाल में नमक कम है’ तक कहने की हिम्मत नहीं पड़ती ,उसे ही सेमिनार में ‘नारी स्वतंत्रता’ पर लम्बे-लम्बे व्याख्यान देने पड़ते हैं ।किसी शोधार्थी ने कभी इस ओर गौर किया है कि बाहर कैंची जैसी चलने वाली हमारी जबान घर में बत्तीस दाँतों के बीच फँस कैसे जाती है ? पतियों की पूरी आबादी इस आज़ादी को पाने के लिए बेचैन है पर इसकी माँग के लिए वह जंतर-मंतर या इंडिया गेट तक नहीं जा पाते ।आधी आबादी से आज़ादी मिलने के फ़िलहाल यही दो केन्द्र हैं पर इसके लिए कोई ‘पति-मुक्ति’ आन्दोलन की पहल नहीं करता।जाहिर है पति को अभी भी सार्वजनिक रूप से पत्नी-पीड़ित होने के अहसास से आज़ादी नहीं मिल पाई है।

सच पूछिए तो आज की तारीख में आज़ादी का सच्चा हकदार पति ही है।उसके लिए घर में आज़ादी के नाम पर साल भर में करवा-चौथ का एक ही दिन आबंटित है।उसी की आस में वह बाकी दिन गुजार देता है।उसके सामने हमेशा मुँह खुला रखने वाली पत्नी का मुँह उस दिन चाँद देखकर ही खुलता है।उस दिन वह पति को न किसी बात पर टोकती है न झिड़कती है,बल्कि उसके पर्स से ख़ूब प्यार जताती है।पति चाहता है कि उस दिन चाँद जरा देर से चमके पर उसके सौभाग्य से यदि चाँद कभी बादलों में छुप भी गया तो टीवी चैनल वाले झुमरी-तलैया से भी उसका दुर्भाग्य ढूँढ लाते हैं।उसकी मुसीबत यहीं खत्म नहीं होती।अब तो व्हाट्स अप और फेसबुक पर भी चाँद की तस्वीर देखकर आधुनिक पत्नियाँ व्रत तोड़ देती हैं।तकनीक का आधुनिक होना हमें यहीं पर खलता है !

हमारी सोच लगातार नए आयाम जोड़ रही थी।यही कि आज हम जैसे पति की कहीं पूछ नहीं होती ।घर हो या बाहर,उस के पक्ष को न पुलिस सुनती है न पड़ोसी।सब मिलकर एक साथ टूट पड़ते हैं।अंग्रेजों से आज़ादी हासिल करने के लिए जहाँ लोग धर्म,जाति,क्षेत्र सब भूल गए थे पर पतियों की खातिर आज पति भी साथ खड़े नहीं होते।हमें डर लगा रहता है कि थोड़ी देर के लिए झंडा उठा लेने पर कहीं घर से ही राशन-पानी न उठ जाए।यह डर तब और बढ़ जाता है जब हमारे कानों में नेताओं और अपराधियों की आज़ादी के किस्से अहर्निश सुनाई देते हैं।एक तरफ यह असहाय प्राणी है जो अपने घर में मनमाफिक चैनल भी नहीं लगा पाता,दूसरी ओर वे लोग हैं,जिन्हें फर्जी डिग्री पाकर देश-सेवा की आज़ादी मिल जाती है।झूठा हलफनामा देकर मंत्री तो बना जा सकता है पर पति नहीं।जहाँ मंत्री से एक अदद इस्तीफ़ा नहीं मिल पाता वहीं पति को जेल और तलाक दोनों।यह कैसी आज़ादी है ? जहाँ तक हम सोच पा रहे हैं ,आज़ादी के कर्णधार यहाँ तक शायद सोच ही नहीं पाए थे।

अपनी सोच को और विस्तार देते हुए हमें खयाल आया कि पति को इस बात की भी आज़ादी मिलनी चाहिए कि वह कभी भी रात-बिरात घर आए,शराब पीकर पत्नी को प्रवचन दे ,अपने बॉस का गुस्सा उस पर उतारे और बच्चों को इसी बहाने अहसास दिला सके कि उनके पास भी एक अदद बाप है।जब तक पतियों की हालत नहीं सुधरती,आधी आबादी कभी पूर्णता का अहसास नहीं कर सकती।पति को घर में आज़ादी मिलने से ही पूर्ण आज़ादी का मिशन पूरा हो सकता है।उसकी स्थिति को दफ्तर में भी औरों से अलग करके देखना चाहिए।कुँवारा होना और पति होना बिलकुल भिन्न परिस्थिति है।किसी फ़ाइल को निपटाने में हमारा ‘पतित्व’ आड़े आ सकता है इसलिए हमारे पतित होने की वज़ह भी दूसरों से बिलकुल अलग होनी चाहिए ।इस सोच का सार यही कि पति को पतित होने की पूरी आज़ादी मिलनी चाहिए ताकि औरों की तरह समाज को वह भी अपनी फुल परफॉर्मेंस दे सके।

सोच  अब पूरी तरह विकसित हो चुकी थी ।हम सोचने लगे कि गलती से हम जैसा पति दफ्तर में यदि बॉस हुआ तो घर और दफ्तर में तालमेल बिठाने में बड़ी पेचीदगियाँ आ जाती हैं । शेर अचानक बिल्ली कैसे बन जाता है,हमसे बेहतर कौन जानता है ? ऐसा दोहरा किरदार निभाने वाले को दफ्तर से विशेष भत्ता उठाने की आज़ादी मिलनी चाहिए।दफ्तर में जहाँ हम अपना बिल खुद पास कर लेते हैं,वहीँ घर में अपने लिए एक सुरक्षित बिल तक नहीं खोज पाते ।खुद के लिए खर्चा माँगने पर घर में सौ सफाइयाँ देनी पड़ती हैं,दस बातें सुनाई जाती हैं।यह पति के प्रति अत्याचार नहीं तो क्या है ? उसको अपनी ही कमाई उड़ाने का हक नहीं है।

भ्रष्टाचार और बेईमानी जैसी अमूर्त चीजों के लिए जहाँ पूर्ण आज़ादी है,वहाँ एक जीते-जागते पति को साँस तक लेना दूभर है।उसकी इज्ज़त दूध वाले भैया और माली काका से भी गई गुजरी हो जाती है।समय आ गया है कि पति नाम के इस प्राणी का संरक्षण किया जाए नहीं तो इस प्रजाति के लुप्त होने में अधिक देर नहीं लगेगी।वैसे भी ‘लिवइन’ से इसकी शुरुआत हो चुकी है।जब कोई किसी का न पति है,न पत्नी तो फ़िर कैसा दायित्व और कैसा बंधन ? सारा दोष गाँठ का ही है इसलिए गठबंधन से भी आज़ादी ज़रूरी है।गठबंधन से सरकार तो चल सकती है,परिवार नहीं।पति को पूरी आज़ादी देकर इस गाँठ को खत्म किया जा सकता है।

हमारी सोच अब चरम पर पहुँच चुकी थी। पति की और भी घरेलू समस्याएँ नज़र आने लगीं।उसके पास आत्मरक्षा के लिए कोई भी आधुनिक हथियार नहीं है।पत्नी जहाँ झाड़ू,बेलन और चिमटे का भरपूर सदुपयोग कर सकती है,वहीँ बेचारा पति तमाचे और घूँसे जैसे अपने पारंपरिक अस्त्रों के भरोसे ही रहता है।घर में उसकी सुरक्षा और आज़ादी सुनिश्चित करने हेतु उसे मुक्केबाजी का निःशुल्क प्रशिक्षण मिलना चाहिए।इससे पति का मौलिक चरित्र बरकरार रखा जा सकता है।

हमारी सोच ने याद दिलाया कि बॉलीवुड को छोडकर किसी ने पतियों की दशा को गम्भीरता से नहीं लिया।’जोरू का गुलाम’ जैसी फ़िल्में बनाकर कुछ हद तक आवाज भले ही उठाई गई हो पर उसकी आज़ादी के लिए कुछ भी नहीं किया गया।पहले के ज़माने की बातें छोड़ दें जब वह सैंया होता था और एक करुण पुकार सुनाई देती थी,’न जाओ सैंया छुड़ा के बैंया,क़सम तुम्हारी मैं रो पडूँगी’।पर न तो आज वह करुण पुकार रही और न ही क़सम।अब तो वे आँसू भी नहीं रहे ! आँसुओं ने भी अपना दल बदल लिया है।हालाँकि पति उन्हें टपका भी नहीं सकता क्योंकि इससे उसका ‘पतित्व’ भंग होने की आशंका बनी रहती है।कम से कम उसे रोने की आज़ादी तो मिलनी ही चाहिए।

सहसा बड़ी जोर से दरवाजा खटखटाने की आवाज आई।हमारी सोच अचानक सातवें आसमान से जमीन पर आ गई । हम जैसे सोते से जागे।बाहर से श्रीमती जी की आवाज सुनाई दी,,’अजी ,वहीँ सो गए क्या ? अब निकल भी आओ ! शालू बिटिया के स्कूल के लिए आज़ादी का निबन्ध भी लिखना है।एक यही काम है जो तुम कायदे से कर सकते हो !’इतना सुनते ही हम तुरंत बाहर आ गए।हमने अपनी आज़ादी को थोड़ी देर के लिए मुल्तवी कर दिया और बेटी को आज़ादी का महत्व समझाने लगा ।

1 टिप्पणी:

ब्लॉग बुलेटिन ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, मेहनती सुप्रीम कोर्ट - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

साहित्य-महोत्सव और नया वाला विमर्श

पिछले दिनों शहर में हो रहे एक ‘ साहित्य - महोत्सव ’ के पास से गुजरना हुआ।इस दौरान एक बड़े - से पोस्टर पर मेरी नज़र ठिठक ...