सोशल मीडिया पर टहल रहा था।अचानक कई जगह अलग-अलग वैरायटी की गालियाँ दिखाई दीं।मन ख़ुश हो गया कि हम किसी दूसरी दुनिया में नहीं पहुँचे हैं।यहाँ भी हमारे गली-मुहल्ले का-सा अपनापा है।वही तू-तू,मैं-मैं,वही मौलिक अभिव्यक्ति।गालियों के मामले में क्या पढ़े-लिखे और क्या अनपढ़ ! इस कला में सभी दक्ष दिखते हैं।सोशल मीडिया अब इसके लिए कोचिंग सेंटर का काम कर रहा है।लोग यहीं निपट रहे हैं,निपटा रहे हैं।‘वेस्ट-मैनेजमेंट’ का सबसे बढ़िया उदाहरण है यह।हर प्रकार का कूड़ा यहाँ खप जाता है।वो भी बिलकुल मुफ़्त में।अन्तर्जाल में गालियों पर शोधपत्र छापे जा रहे हैं।कुछ ने तो डॉक्टरेट भी कर रखी है।ऐसे प्रशिक्षित लोग जब सोशल मीडिया में उवाचते हैं,नई पीढ़ी दनादन ‘लाइक’ करती है।नित नई गालियाँ गढ़ी जा रही हैं।इस तरह हिंदी का शब्दकोश दैनिक रूप से समृद्ध हो रहा है।अंततः इस ‘रचनात्मकता’ से हमारी मातृभाषा को ही संबल मिलेगा।गालियों के मामले में हम आत्मनिर्भर हों,यह बेहद ज़रूरी है।आख़िर कब तक हम आयातित गालियों से काम चलाते रहेंगे ? अंग्रेज़ी गाली सब बुद्धिजीवी समझते भी कहाँ हैं !
मनुष्य मौलिकता में रहना पसंद करता है।तभी वह अधिक सहज रह पाता है।पर क्या करे,आजकल एक चेहरे से काम भी नहीं चलता।घर और बाहर अलग-अलग अवतार धरने पड़ते हैं।गालियाँ आदमी को उसकी स्वाभाविक स्थिति में लाने में सबसे अधिक सहायक होती हैं।आदमी अपने मूलरूप में तभी आता है या तो उसका गला सोमरस से तर हो या क्रोध को उसने अपने गले में स्थायी रूप से टाँग रखा हो।यदि वह सभ्य गाली देता भी है तो यह सब वह मौलिकता के लिए करता है।और मौलिक होना सबसे बड़ा लेखकीय गुण है।
सोशल मीडिया पर घूम ही रहा था कि एक जाने-माने बुद्धिजीवी की ‘पोस्ट’ से टकरा गया।पोस्ट ऑलरेडी वायरल हो चुकी थी।मैं कब तक बचता,सो उसकी चपेट में मैं भी आ गया।ख़ूब बमचक मची हुई थी।उस सोशल-मीडिया कर्मी ने गाली को एक नया साहित्यिक आयाम दिया था।प्रचलित गालियों से बिलकुल हटकर प्रयोग था।बहुत सारे लोग शब्दकोश के हवाले से नए-नए अर्थ बता रहे थे।वहाँ हो रहे विमर्श से पता चला कि वे भूतपूर्व लेखक हैं।अपने समय में उन्होंने लिखा तो ख़ूब पर पाठक ही उनके लिखे को समझ नहीं पाए।लेकिन जबसे वे यहाँ सक्रिय हुए हैं,उनका पुनर्वास हो गया है।उनके बड़े-बड़े उपन्यास सामान्य-सी हलचल नहीं पैदा कर पाए और यहाँ एक पंक्ति भी ट्रेंड करने लगती है।वे आधुनिक क्रांति-दूत बन गए हैं।उनके चिंता व्यक्त करते ही हज़ारों फ़ॉलोअर्स कट मरते हैं।माहौल से अनजान हमने उनकी ‘उस’ साहित्यिक-गाली की कड़ी निंदा कर दी।फिर क्या था,कई लोग मुझ अलेखक़ पर टूट पड़े।मुझे तुरंत ग़ैर-साहित्यिक और असहिष्णु क़रार दे दिया गया।एक सज्जन ने तो मेरे पिछले जन्म की बक़ायदा पूरी कुंडली ही खोल दी।इससे फ़ौरी लाभ यह हुआ कि हमें अपने पुरखों की वो सब बातें मालूम हुईं ,जिनसे मैं अब तक बिलकुल अनजान था।
तभी अचानक हमारी संदेश-पेटी चमकने लगी।मैं चैट-बॉक्स की ओर मुख़ातिब हुआ।एक नए गालीबाज़ ने अपनी श्रद्धानुसार मेरा स्वागत किया।हमने पूछा कि आप मेरा ऐसा अभिनंदन क्यों कर रहे हैं ? मैं तो पूरी तरह अभी बुद्धिजीवी भी नहीं बना हूँ।उसकी तरफ़ से जवाब आया-‘मैं तुम्हें ‘ट्रोल’ कर रहा हूँ।मेरा यही कर्म और धर्म है।तुम अभी सोशल मीडिया के लिए नए हो।कहाँ और किस बात पर क्या कहना है,यह तुम्हें सीखना होगा।’मैंने डरते हुए पूछा,´यह ‘ट्रोल’ क्या बला है ? मैं तो केवल अभी तक टोल-टैक्स के बारे में ही जानता हूँ।हर नाके पर हमेशा देता भी हूँ।’ कहने लगा-‘ट्रोल मतलब नाक में दम करना।हम बिना किसी हिंसा के अपना शिकार करते हैं।उसे मारते नहीं केवल घसीटते हैं।इस बीच यदि वह मर जाए तो यह उसकी ‘असहिष्णुता’ है।पर यह कभी-कभी होता है।सामान्यतः हम जिसे ‘ट्रोल’ करते हैं उसे उसके खोल में पहुँचाकर दम लेते हैं।’
‘मगर मैंने ऐसा क्या अपराध कर दिया ? अपने विचार ही प्रकट किए हैं।आख़िर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इसीलिए तो है ! ’ मैंने मुँहतोड़ जवाब दिया।
ऐसा लगता है उसे मुझसे ऐसे जवाब की उम्मीद पहले से थी।तुरंत उसकी तरफ़ से एक ‘सभ्य’ गाली आई।साथ में सनसनाता हुआ संदेश भी-‘अभिव्यक्ति की यही आज़ादी मुझे भी हासिल है।तुम इस फ़ील्ड में नए हो,इसलिए ज़रा हल्का स्वागत किया है।इस बार तो इनबॉक्स में ही छोड़ रहा हूँ।आइंदा घर में घुसकर ‘ट्रोल’ करूँगा।हमें घरेलू अनुभव काफ़ी है।घरेलू-हिंसा के तीन केस पहले से चल रहे हैं।तुम मेरा काम मत बढ़ाओ।’ मैं अब तक उस ‘हल्की’ गाली के सदमे से ही बाहर नहीं आ पाया था,तभी पीछे से श्रीमती जी की आवाज़ आई,‘बस भी करो चैटिंग ! कुछ लिख-पढ़ भी लिया करो।’ मैं उनसे कैसे कहता कि भागवान,यह सब लिखने-पढ़ने का ही नतीजा है !
इसके बाद सोशल मीडिया से मैं लॉग-आउट होने ही वाला था कि दूसरे बुद्धिजीवी ने कबीर के हवाले से लिखा था,‘गाली आवत एक है,पलटत होत अनेक’।इसकी व्याख्या करते हुए वे बता रहे थे कि यदि ‘बाईं’ ओर से एक गाली आती है तो पलट के ‘दाहिनी’ ओर से अनेक गालियाँ बन जाती हैं।तभी समाज में संतुलन बना रहता है।इसके आगे की व्याख्या मैं पढ़ नहीं सका,हाँ तब तक उनकी पोस्ट और उसमें आईं भद्रजनों की संस्कारी-गालियाँ वायरल हो चुकी थीं।मैं वहाँ से झट बाहर निकल आया ,लेकिन लग रहा है कि मैं ट्रोल-नाके से अभी-अभी गुज़रा हूँ !
संतोष त्रिवेदी
5 टिप्पणियां:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, सौ सुनार की एक लौहार की “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
आप को सपरिवार शुभ पर्व की मंगलकामनाएं
आदमी अपने मूलरूप में तभी आता है या तो उसका गला सोमरस से तर हो या क्रोध को उसने अपने गले में स्थायी रूप से टाँग रखा हो।यदि वह सभ्य गाली देता भी है तो यह सब वह मौलिकता के लिए करता है।और मौलिक होना सबसे बड़ा लेखकीय गुण है।
वाह वाह। अद्भुत लेखनी। बहुत ही चुटीली भाषा और मीठे तंज़ से सजा हुआ लेख। बधाई
अद्भुत लेखन.
कूद गये तो क्या घबराना,
उसी गली में आना जाना।
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