नया बजट आ गया है।सरकार ने इस बार बड़ा एहतियात बरता है।इससे आम आदमी की तबियत न बिगड़े,इसलिए उसकी ख़ातिर ‘स्वास्थ्य बीमा’ लाया गया है।इसका असर अभी से दिखने भी लगा है।आम आदमी का ‘अशुभ-चिंतक’ बाज़ार इसे देखते ही बीमार हो गया है।बजट के सामने वह पूरी तरह ‘दंडवत’ हो गया।सरकार के समर्थक समझ रहे हैं कि बाज़ार सलामी दे रहा है पर विरोधी कह रहे हैं कि यह सलामी नहीं ‘सुनामी’ है।सरकार ख़ुद यह कह रही है कि उसने ग़रीब का ख़याल रखा है।इस बात का पहला सबूत तो यही कि उसके मंत्री ने अपना पिटारा खोलते समय कुल सत्ताइस बार ‘ग़रीब’ का ज़िक्र किया।उधर सरकार से ज़्यादा उसकी फ़िक्र विपक्ष को है।उसका हर बयान ग़रीब से ही शुरू होता है।अब यह बजट का ही तो असर है कि इसके आने के बाद से ग़रीब केंद्र में आ गया है।यहाँ तक कि इस बार मंत्री जी ने ‘हिंदी’ में भी समझा दिया है कि २०२२ के बाद ग़रीब केवल शब्दकोश में रहेगा।उसकी ख़ुशहाली के लिए ही उन्होंने इस बार सरकार का ‘कोष’ उसे समर्पित कर दिया है।
बजट में एक बात और अच्छी की गई है।फ़सल बीमा योजना के ज़रिए सरकार और किसान दोनों की ‘फ़सल’ सुरक्षित रहेगी।विपक्ष को भी इस बात की ‘आशंका’ हो गई है,इसलिए वह इसे महज़ ‘लोक-लुभावन’ कहकर ख़ारिज कर रहा है।उसे पता चल गया है कि असल शब्दकोश में लोक-लुभावन का अर्थ ‘खरपतवार’ होता है।यह उसकी ‘फ़सल’ नष्ट कर देगा।बजट में और भी बहुत सी अच्छी बातें हैं; जैसे काजू सस्ता हो गया है,टीवी,मोबाइल और जूते मँहगे हुए हैं,जबकि नमक और ई-टिकट सस्ते।केवल इन्हीं वस्तुओं से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि सरकार ग़रीब-समर्थक है।वो चाहती है कि दाल-रोटी छोड़िए काजू उसकी पहुँच में आ जाए।बरसों से ग़रीब की पहचान दाल-रोटी से ही रही है।मोमबत्ती को सस्ती करने का मतलब भी साफ़ है।ग़रीब के हिस्से में अँधेरा ज़्यादा है।एक अकेले सरकारी बिजली उसे कितना दूर करेगी,सो उसके लिए ‘अतिरिक्त प्रकाश’ की व्यवस्था की गई है।रही बात टीवी,मोबाइल और जूते मँहगे करने की,तो यह क़दम भी सर्वथा उचित है।न्यूज़ चैनलों में रोज़ हो रही मार-पीट को देखकर ग़रीब अपना माथा क्यों फोड़े ? उसकी सेहत सही रहे,इसीलिए सरकार ‘हेल्थ-बीमा’ लाई है।मोबाइल को तो मँहगा करना ज़रूरी हो गया था।जब से इसमें बातें करना ‘फ़्री’ हुआ है,आम आदमी भी सरकार की तरह बातें बनाने लगा था।सरकार का तो ऐसा करने का हक़ बनता है।उसे देश भी चलाना है।आम आदमी केवल बातें करेगा तो काम कब करेगा ? इसलिए यह क़दम स्वागत-योग्य है।और जब सरकार देशहित में इतने क़दम रखेगी,तो जूते तो अपने-आप मँहगे हो जाएँगे।
सरकार ने कई चीज़ें सस्ती भी की हैं।मोमबत्ती के अलावा नमक और ई-टिकट।वह चाहती है कि आम आदमी जितना ज़्यादा उसका ‘नमक’ खाएगा,उतना ही उसका हक़ अदा करेगा।और वो ये सब तब कर पाएगी जब ये दोनों बने रहेंगे।ई-टिकट ग़रीब को इसलिए सस्ती दर पर मुहैया कराया जाएगा क्योंकि लोकसभा ,विधानसभा और राज्यसभा के टिकट वह ‘अफ़ोर्ड’ भी नहीं कर सकता।ख़ुद ‘आम आदमी’ इसके ख़िलाफ़ है।अगर उसे किसी तरह टिकट मिल भी गया तो चुनाव जीतना तो दूर,वह चुनावी-ब्योरा तक सही ढंग से पेश नहीं कर सकता।इसलिए सस्ते ई-टिकट से वह सफ़र करे और शहर के प्रदूषण से बचे।इस लिहाज़ से यह बजट पर्यावरण-अनुकूल भी है।
बजट के बारे में हमने पहले उस ‘मिडिल क्लास’ की राय जाननी चाही,जिसके बारे में कहा जा रहा है कि सबसे ज़्यादा मार उसी पर पड़ी है।वह हमें ट्रेन के थर्ड क्लास डब्बे में ही मिल गया।हमने सबसे पहले उससे यही जानना चाहा कि बजट पर उसकी प्रतिक्रिया क्या है।वह नाराज़ हो गया।कहने लगा-आपका बुनियादी सवाल ही ग़लत है।जो करता है,बजट ही करता है।इस नाते वह हम पर ‘क्रिया’ करता है,हम ‘प्रतिक्रिया’ कैसे दे सकते हैं ! यह काम अर्थशास्त्रियों का है।’ फिर भी आपको बजट कैसा लगा ? हम अंदर की बात निकालना चाहते थे।वह निर्विकार भाव से बताने लगा-साहब,कुछ लोग यह अफ़वाह फैला रहे हैं कि हमको बड़ी मार पड़ी है,जबकि सही यह है कि हमें अब कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता।हमें तो बरसों से बजट के घूँट पी लेने का तजुरबा है।’कैटल-क्लास’ से जारी यह सफ़र थर्ड क्लास तक यूँ ही नहीं पहुँचा।’ हम कुछ और पूछते,पता चला कि इस चक्कर में उसका स्टेशन भी छूट गया।हमने उसको महत्वपूर्ण सलाह दी कि आगे उतरकर ‘यू-टर्न’ ले लेना।उधर से जवाब आया-यह सुविधा केवल सरकार के पास होती है।
‘मिडिल-क्लास’ की इस राहत भरी साँस के बाद हमारी नज़र अख़बार पर गई।वहाँ सरकार और विपक्ष दोनों के राहत भरे बयान थे।सरकार इसलिए ख़ुश थी कि यह पहला ऐसा ‘मिसाइल-बजट’ है,जिसे पेश किया गया है २०१८ में पर इसकी मारक-क्षमता २०२२ तक रहेगी।एक साल के साथ उसे चार साल यूँ ही मिल गए ! वहीं विपक्ष को इस बात की राहत कि चार साल बीत गए।शुक्र है,सरकार का बस एक साल ही बचा है !
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