इन दिनों ‘लोकतंत्र’ और ‘सत्य’ लगातार खबरों में बने हुए हैं।इससे इस बात की पुष्टि भी होती है कि ये दोनों अभी तक जीवित हैं।यह इस सबके बावजूद हुआ जबकि हर दूसरे दिन ‘लोकतंत्र की हत्या’ होने की मुनादी पिटती है।पर यह सशक्त लोकतंत्र का कमाल ही है कि वह अगले दिन सही-सलामत और दुरुस्त पाया जाता है।अचानक ‘लोकतंत्र की जीत’ होती है।उस पर संपूर्ण निष्ठा समर्पित हो जाती है।कुछ ऐसा ही मामला बेचारे ‘सत्य’ के साथ भी घटित होता है।जब भी लोकतंत्र को थोड़ी कमजोरी महसूस होती है,वह सत्य की टॉनिक पी लेता है। ‘सत्य’ स्वाभिमानी होता है।वह सदन से उठकर पंचसितारा होटलों में सुकून की साँस लेता है।और तब तो ‘सत्य की जीत’ ज़रूर होती है,जब किसी आरोपी को सहसा ‘न्याय’ मिल जाता है।
अपना देश कोई आम लोकतंत्र नहीं है।जिस तरह देश का आख़िरी आदमी मरते-मरते जी उठता है,ठीक उसी तरह अपना लोकतंत्र भी आख़िरी साँस निकलने से पहले एकदम से चिहुंक उठता है।पिछले सत्तर सालों से ‘गनतंत्र’ की गठरी संभाले वह आज भी उसी दम से हुंकार भरता है।यह लोकतंत्र का चमत्कार ही है कि न्याय की आस में पीड़ित का दम निकलता है तो निकल जाए,पर ‘न्यायिक-व्यवस्था’ का बाल-बाँका भी नहीं होता ! दस साल में न्याय दस कदम भले न बढ़ पाए पर उसकी फ़ाइलें नौ दिन में अढ़ाई कोस ज़रूर चल लेती हैं।अंधा होने के कारण क़ानून ख़ुद नहीं देख पाता।इसलिए व्यवस्था उसे ‘टॉर्च’ दिखाती है।जैसे हिरन कस्तूरी खोजता है,फिर वैसे ही ‘सत्य’ की खोज होती है।
और ‘सत्य’ है कि वह सबसे अनूठा है।एक ही समय में वह सबके पास होता है।सबका अपना ‘सत्य’ होता है।पुरानी कहावत है ‘सत्यमेव जयते’।इसका जाप करते ही सत्य एकदम से साधक के पाले में आ जाता है।नींव भले असत्य की हो,पर उस पर झंडा सत्य का ही फहरता है।साधक को जो दिखता है,वह सत्य होता है।और जो नहीं दिखता वही असल सत्य होता है।इसमें एक और ख़ास बात है।सत्य हमेशा ‘सबल’ होता है।बलवान के पास ही रहता है।निर्बल तो सत्य को परेशान करने की ज़हमत भी नहीं उठाता।ये तो बलशाली हैं जिन्हें इस बात का आत्म-विश्वास होता है कि ‘सत्य परेशान हो सकता है,पराजित नहीं’।उन्हें अपने सत्य पर पूरा भरोसा होता है।उनका यह भरोसा कभी भ्रम में नहीं बदलता।उनका सत्य कभी पराजित नहीं होता।परम ज्ञानियों ने इन्हीं वजहों से इसे अपना जीवन-वाक्य बनाया है।और एक बात,सत्य को हमेशा प्रिय पसंद है।अप्रिय सत्य दुःखकारी होता है।इसीलिए साधुजन सदैव सत्य बोलते हैं।
महान लोगों के ‘सत्य’ को स्थापित करने में जिस घटक की ख़ास भूमिका है,वह है लोकतंत्र।यह ऐसा अभेद्य कवच है जिसे कोई भेद नहीं सकता।बड़े-बड़े संकट ‘लोकतंत्र’ की छतरी के नीचे समाधान पाते हैं।‘ख़तरे’ सदैव सुरक्षित होते हैं और फलते-फूलते भी।इसीलिए हमारा लोकतंत्र अब तक मज़बूत बना हुआ है।सड़क से सदन तक इसके ज़बर्दस्त पैरोकार हैं।यह रैलियों और भाषणों का सार होता है।चुनावों में इसे बड़े आदर से पूजते हैं।बाद में श्रद्धापूर्वक इसका आचमन भी किया जाता है।यूँ कह लीजिए,लोकतंत्र हमारे देश की रीढ़ है।इसीलिए ये बड़ा संवेदनशील होता है।ज़रा-सी बात पर ‘हर्ट’ हो लेता है और बड़ी बात पर संज्ञा-शून्य।आजकल ‘प्राइम-टाइम’ की सारी बहसें इसी पर टिकी हुई हैं।
कल ऐसी ही एक बहस में लोकतंत्र का ‘आख़िरी आदमी’ घुस गया।बड़ी मुश्किल से उसकी जान छूटी।वहाँ ‘लोकतंत्र’ और ‘न्याय’ में सीधी टक्कर चल रही थी।लोकतंत्र का कहना था कि ‘न्याय’ ने उसकी व्यवस्था में सीधा दख़ल दिया है।जबकि उसे कुछ करने का नहीं सिर्फ़ देखने का अधिकार है।यह उसकी ‘अति-सक्रियता’ है।ऐसे में लोकतंत्र कैसे चलेगा ? ‘सत्य’ तो उसके साथ है।जीत भी उसी की होनी चाहिए।ऐसे ही चलता रहा तो अराजकता आ जाएगी !
इस पर ‘न्याय’ ने भी अपने तर्क दिए।हम कब तक मूक-दर्शक बने रहेंगे ? इंसान हमारी ओर टकटकी लगाए देख रहा है।अब तो पट्टी-बँधी इन आँखों में दर्द भी होने लगा है।’लोकतंत्र’ का लोक लुप्त हो रहा है।यह सुनकर सत्य ने बग़ल में बैठी ‘व्यवस्था’ को कोहनी मारी।वह ज़ोर से हँसी।कहने लगी, ‘तुम सभी हमारे सहयोग के लिए बनाए गए हो।केवल काम करिए।सोचने का काम हमारा है।अगर हमें कुछ हुआ तो तुम एक भी नहीं बचोगे।रही बात आदमी की,यह सब उसके लिए नया नहीं है। ‘लोकतंत्र’ तो बना ही हम दोनों से है।इसके अलावा कुछ भी सत्य नहीं है।हम तो शपथ भी सत्य की खाते हैं।इसके बाद खाने को कुछ बचता नहीं।’
सरेआम ऐसे सत्य-वचन सुनकर सत्य भी शरमा गया।वह पानी-पानी होता,इससे पहले ही लोकतंत्र ने बचा लिया।बहस देखता आदमी सकते में था।तभी न्याय ने तनिक झेंपते हुए कुछ कहना चाहा पर उसे अगली तारीख़ मिल गई।
इस तरह बहस में भी ‘लोकतंत्र की जीत’ हुई।
-संतोष त्रिवेदी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें