अचानक हुए इस हमले से मैं हड़बड़ा गया।रज़ाई को और मज़बूती से अपनी ओर खींचते हुए बोला, ‘कैलेंडर ही तो बदला है।जैसे दिन और महीने बदलते हैं,वैसे ही तुम बदले हो।ज़्यादा-से ज़्यादा तेल और दूध के दाम बदले होंगे।रोज़ बदलते हैं।इसमें नया क्या है ? वैसे भी मुझे बदलाव से चिढ़ है।ख़ासकर लोगों के बदल जाने से।बदल जाने वाले लोग बेवफ़ा होते हैं।हम कोई चुनावी-वादा या डॉलर का रेट नहीं हैं जो पलक झपकते बदल जाएँ ! अगर कुछ बदलना है तो देश बदले।ईवीएम मशीन बदले।सरकार बदले।मगर वो भी तो नहीं बदलेगी इस साल।मुझे तो अगले साल भी ज़्यादा उम्मीद नहीं दिखती।ऐसे में हम किस बात का जश्न मनाएँ ? हमसे बदलने की उम्मीद तो करो मत।हम लेखक हैं।बदलाव का आह्वान करते हैं,ख़ुद बदलते नहीं।’
यह सुनते ही नया साल ज़ोर से हँसा, ‘तुमने बदलाव के विरुद्ध जितने तर्क़ दिए हैं,सब बेकार हैं।इतनी मेहनत ख़ुद को बदलने में करते तो अब तक ‘अकादमी’ पा जाते।बिना बदले प्रगति नहीं होती,यह छोटी-सी बात तुम्हारे भेजे में नहीं आई ? सच तो यह है कि तुम बदलना नहीं चाहते।तुम जड़ थे और जड़ ही रहोगे।चेतन बनो,भगत नहीं।तुम केवल लिखते हो,अमल नहीं करते।हम हर साल इसलिए आते हैं कि कुछ बदले न बदले,कैलेंडर तो बदल जाए।इसीलिए लोगों को सरकार के बजाय साल के बदलने का इंतज़ार रहता है।उन्हें हम उम्मीद बेचते हैं।तुम हमारी मार्केटिंग पर पलीता मत लगाओ।बदलाव को मन से स्वीकार कर लो।ट्रेंड के साथ चलो।पुरानी धारणाओं को तिलांजलि दे दो।आओ,दोनों मिलकर नया इतिहास बनाएँ।’ नया साल खुलकर जबरजस्ती पर उतर आया।
उसके इस आह्वान से मैं अंदर तक हिल गया।एक पल को लगा कि मेरी सारी जड़ता टूट जाएगी पर अगले ही पल ख़ुद को सँभाल लिया।तरकश में अभी कई तीर थे।हमने नए साल पर नई निग़ाह डालते हुए कहा, ‘मेरे बदलाव की बात छोड़िए।मेरे बदलने से क्या होगा ? बाक़ी सब तो बदल ही रहा है।बीते सालों में इतिहास बदल गया,मँहगाई का अर्थशास्त्र बदल गया।बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार पर संकुचित सोच भी बदल गई।अपराधी से ज़्यादा उसका धर्म महत्वपूर्ण हो गया।नए साल में पहले बदलाव की आहट भी देख रहा हूँ।अब चड्डी-बनियान भी लूँगा तो ध्यान रखूँगा कि उसका ‘रंग’ बेशर्म वाला क़तई न हो।एक छोटी-सी चूक बड़ा दंगा कर सकती है।इसलिए ‘राष्ट्रीय दंगा-समिति’ वाले सज्जन से ‘सेंसर’ करवाने के बाद ही चड्डी खरीदूँगा।मेरे कुछ त्याग से यदि समाज में शांति स्थापित हो सकती है,तो ख़ुद को बदलने के लिए मैं तैयार हूँ।खाने-पीने और पहनने में इतना लिहाज़ तो होना ही चाहिए।हमें अब यमदूत से नहीं संस्कृति-दूत से डर लगने लगा है।इत्ता बदलाव काफ़ी नहीं है क्या ?’
यह सुनते ही नया साल मेरे गले से लिपट गया।वह मुझ पर बेतहाशा प्यार बरसा रहा था और मैं उस बेचारे पर दम घोटने का आरोप लगाने लगा।
संतोष त्रिवेदी
2 टिप्पणियां:
हमें अब यमदूत से नहीं संस्कृति-दूत से डर लगने लगा है।इत्ता बदलाव काफ़ी नहीं है क्या ?’ यह सुनते ही नया साल मेरे गले से लिपट गया।वह मुझ पर बेतहाशा प्यार बरसा रहा था और मैं उस बेचारे पर दम घोटने का आरोप लगाने लगा।
बहुत सही, अपनी आत्मा से समझौता कर यदि कोई बदलाव किया तो क्या किया?
नववर्ष की शुभकामनाएं
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