बुधवार, 12 जून 2013

बीमारी भी आहत है !

12/06/2013 को 'जनवाणी' में



इस देश के लोग निरा निष्ठुर निकले।भारतीय संस्कार अभी तक यही सिखाते आ रहे थे कि हम किसी का भरपूर विरोध कर सकते हैं पर बीमारी से हमें केवल सहानुभूति होती है।यह परम्परा इस बार टूट गई है।बीमारी इस बात को लेकर बड़े सदमे में है।उसे एक राष्ट्रीय मुद्दा बनाया गया,पर नई पढ़ाई करके आए डॉक्टरों ने अपनी बैठक में उसे बिलकुल ख़ारिज कर दिया।इससे बीमारी बहुत आहत है।उसके स्वाभिमान को पहली बार इतनी ठेस लगी है,जब उसका इलाज़ करने की कोशिश तक नहीं की गई।

महत्वपूर्ण बैठक में न जा पाने से बीमारी को लेकर तरह-तरह के कथानक और गल्प गढ़े गए।डॉक्टरों ने यह नहीं सोचा कि इससे बीमारी पर और मानसिक दबाव पड़ेगा और उसका केस बिगड़ सकता है।बीमारी ने अपनी तरफ से पूरी शिष्टता का परिचय दिया।वह नियत समय तक परदे में रही और डॉक्टरों की नई बीमारी की खोज तक खामोश भी।इस बीच उसने कितना-कुछ सहा,वही जानती है।मीडिया वालों के पूछने पर डॉक्टरों के प्रवक्ता लगातार दाएँ-बाएं करके अपनी हँसी निर्गत कर रहे थे,पर बीमारी ने घोर संयम का परिचय दिया।प्रवक्ता जी ने बीमारी का कारण महज मौसम का बदलाव बता दिया।यह भी इतिहास में पहली बार हुआ जब बीमारी ने अपने जीते-जी डॉक्टरों के बजाय तीमारदारों की सेना का आक्रमण झेला।उसने अपना सारा दर्द मौन होकर सहा,किसी से बयान तक नहीं किया।

ऐसा देश में पहली बार हुआ जब कोई बीमारी संगठित रूप से सामने आई हो।उसने यह बताया कि अगर इच्छाशक्ति हो तो बैठकों का मुकाबला संयुक्त रूप से बीमार होकर किया जा सकता है।यह नुस्खा कारगर होने ही वाला था कि कुछ तीमारदारों ने ऐन वक्त पर अपने पाले बदल लिए और बीमारी को असहाय छोड़ दिया।अब भविष्य में भला कोई बीमारी के भरोसे भी रह सकता है ? इस तरह बीमारी का अपने मिशन में फेल होना कइयों के लिए ख़तरे का संकेत है।ऐसे में क्या कोई बीमार भी न होए ?

इस उल्लेखनीय और रहस्यमय बीमारी के बारे में कई तथ्य बाद में उद्घाटित हुए ,जब उसके इलाज़ की सारी संभावनाएं निरस्त हो गईं।पता चला कि वह शर-शैय्या में पड़े भीष्म-पितामह की तरह इस इंतज़ार में थी कि रहम खाकर अर्जुन उसकी प्यास को जरूर बुझायेगा।इस बीच कैलेंडर में तारीखें बदल चुकी थीं और समय भी महाभारत-कालीन न होकर कलियुग का चलने लगा था।अब अर्जुन भी क्या करता ?उसे पहले अपनी प्यास बुझानी थी ,सो उसने पानी खुद पी लिया और पितामह के सामने आँसुओं का सैलाब ला दिया।यह बात जब तक पितामह को समझ में आती,उनकी बीमारी राष्ट्रीय प्रहसन में बदल गई थी।

बहरहाल,अब बीमारी बिना इलाज के ही आत्मनिर्भर होने पर गंभीरता से सोच रही है और यह भी कि जो उसकी कद्र न करें,उनके लिए बीमार भी न हुआ जाए।समय के साथ अगर परम्पराएँ बदल रही हैं तो बीमारी भी बदल सकती है।इसलिए भविष्य में बीमारी को हँसी-मजाक का विषय न माना जाए और उसे एक रणनीति के रूप में मान्यता मिले।

 
 

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