२७/११/२०१३ को जनसन्देश में |
मैं बहुत खिन्न हूँ इसलिए प्रायश्चित्त करना चाहता हूँ।मेरी
नैतिकता मुझे बार-बार उकसा रही है कि इससे पहले कोई
अनहोनी हो,तिहाड़ के दरवाजे खुलें,मुझे प्रायश्चित्त कर लेना चाहिए।मेरी
तो इच्छा है कि मैं प्रायश्चित्त-दिवस या मास नहीं पूरा ‘प्रायश्चित्त-पर्व’ ही
मना डालूँ।पर इसमें एक संकट भी है।प्रायश्चित्त करने के लिए पहले मुझे तहलका टाइप
कुछ करना होगा,फिर इस्तीफ़ा देना होगा पर वह कहाँ से लाऊँ ? मेरे पास ऐसा कोई प्रभावशाली
पद भी तो नहीं है।इसलिए मेरे प्रायश्चित्त का कोई जुगाड़ बनता नज़र नहीं आ रहा है।
मुझे गुनाह करने के मौके खूब मिले पर प्रायश्चित्त का ही
अवसर नहीं मिल पाया।हाँ,प्रसिद्ध दार्शनिक रूसो के ‘कन्फेशन’ से ज़रूर मैंने
प्रेरणा ली है और इसीलिए ‘कन्फेस’ करना चाहता हूँ।मैंने चर्च में भी ‘कन्फेशन’
करने की सोची पर वहां फेस टू फेस करने की वज़ह से थोड़ा पंगा है।जिस गुनाह को हम साफ़
करना चाहते हैं वह केवल गॉड या ईश्वर के आगे करने से कोई फायदा नहीं है।मैं चाहता
हूँ कि भले ही मैंने गुनाह छुपकर और बलात किया हो पर प्रायश्चित्त सार्वजनिक होना
ही चाहिए।इससे यह सन्देश जायेगा कि बंदे ने गलत हरकत भले ही की हो,पर उसकी नीयत
बिलकुल पाक-साफ़ है ।अब यह उसकी भी गलती है, जो समय से मेरी नीयत नहीं भांप सका ,फिर
भी मैं प्रायश्चित्त को तैयार हूँ।यह उच्च स्तर की नैतिकता नहीं तो क्या है ? वैसे
भी एक अपराधी को सुधार का मौका मिलता है ।अगर कोई बलात्कारी अपने गुनाह को मानकर खुलेआम
माफ़ी की मांग करता है तो उसे माफ़ कर देने से कानून और समाज का बड़ा भला होगा ।इससे
स्वीकारोक्ति का चलन बढेगा और पुलिस को भी अपराधी ढूँढने में ‘लुक-आउट’ का सहारा
नहीं लेना पड़ेगा।लोग किसी भी तरह का तहलका करके अख़बारों में प्रायश्चित्त का एक प्रेसनोट
भेज देंगे,इस तरह उनकी और समाज की इज्ज़त बची रहेगी।
प्रायश्चित्त मनाने की बात कोई नई नहीं है।हमारे देश में
प्राचीन काल में ऐसी व्यवस्था थी कि राजा और ऋषि लोग अपराध होने पर
‘प्रायश्चित्त-मोड’ में चले जाते थे और बकायदा ‘प्रायश्चित्त-पर्व’ मनाते थे।यह
बात और है कि तब अनजाने में हुई गलतियों के लिए यह कदम उठाया जाता था।कहते हैं कि इंद्र
ने अहिल्या के साथ छल-कपट से काम-क्रीड़ा की थी पर दोनों को इसका प्रायश्चित्त भोगना
पड़ा था।इंद्र कुछ समय के प्रायश्चित्त के बाद पुनः इन्द्रासन पर बैठ गए थे लेकिन
अहिल्या को वर्षों तक पत्थर बनना पड़ा था।और भी कई उदाहरण हैं जब राजाओं ने सिंहासन
त्यागकर कंदराओं में विचरण किया था। इससे यह तो साबित होता है कि तब भी अपराधी को
प्रायश्चित्त करने की सुविधा मिली हुई थी।अब तो तब से लेकर हम काफी प्रगति कर चुके
हैं।ऐसे में प्रायश्चित्त करने का साहस दिखाने वालों का सार्वजनिक अभिनन्दन होना
चाहिए पर मेरे सामने मुख्य समस्या यही है कि न मेरे पास कोई सिंहासन है और न ही
कोई बड़ा पद।फिर मैं कैसे और कहाँ से इस्तीफ़ा दूं ?
मैं बिलकुल प्रायश्चित्त के मूड में हूँ पर इसे करने का कोई
उपाय नहीं सूझ रहा है।एक पद-विहीन लेखक यदि लेखन से भी इस्तीफ़ा दे देगा तो उसके प्रायश्चित्त
की सूचना भी कैसे होगी ? लगता है मुझे अपने पापों और गुनाहों की मुक्ति के लिए कोई
रास्ता नहीं मिलेगा।मुक्ति पाने के लिए पहले बड़ा बनना होगा तभी मुक्ति का सक्षम
अधिकारी बन सकूँगा।
दैनिक ट्रिब्यून में ०२/१२/१३ को व नेशनल दुनिया में ५/१२/२०१३ को
1 टिप्पणी:
६ माह कम नहीं होते, प्रायश्चित सच्चा हो पर।
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