30/11/2013 को हरिभूमि में |
कुर्सी पर बैठने वाले साहब ही होते हैं,यह तब और पक्का
हो गया जब खबर आई कि वे जिस पर बैठे थे ,वह नीलामी की हक़दार हो गई ।इससे साहब के
रुतबे को चार चाँद लग गए और वे बड़ी कुर्सी की ओर दो इंच और सरक गए।इस कुर्सी की
कीमत तय करेगी कि साहब की मार्केट-वैल्यू क्या है ? उनके बन्दों ने फ़िलहाल उस
सौभाग्यशाली कुर्सी के ऊपर पाँच लाख का दाँव लगा रखा है।यह कीमत साहब के ‘टाइम’ के
ऑनलाइन सर्वे में नॉमिनेट होने से पहले की है,इस लिहाज़ से अब इसमें और बढ़ोत्तरी हो
सकती है।नीलामीकर्ता अब उस कुर्सी पर ‘टाइम-इफेक्ट’ का टैग लगाकर मनचाही कीमत वसूल
सकते हैं।फ़िलहाल,जिन लोगों की निष्ठा महज़ कुर्सी तक होती है,वे साहब के ‘कुर्सी-त्याग’
की कीमत से अपनी हैसियत का अंदाज़ा लगा सकते हैं।
कीमत कुर्सी की नहीं उस पर बैठने वाले की होती है।यूँ तो
कुर्सी पर मास्टर जी भी विराजते हैं पर उनकी कुर्सी की कीमत टका भर की नहीं है।न
मास्टर जी के बच्चे और न ही सरकार उनकी कुर्सी के अवमूल्यन पर चिंतित है।इसकी सीधी
वज़ह यही है कि मास्टर जी साहब नहीं हैं।उन्हें हर कोई घुड़क देता है।जो व्यक्ति
अपनी इज्ज़त नहीं सुरक्षित रख सकता ,वो बेचारा कुर्सी को क्या खाक संभाल पायेगा ?
कुर्सी-कुर्सी में भी तो फर्क होता है।मास्टर जी की कुर्सी का दायरा एक कक्षा तक
सीमित है जबकि साहब की कुर्सी अपने लिए इच्छित स्पेस बना सकती है,उसके आगे खुला
आसमान है।जहाँ मास्टर जी का सौभाग्य है कि वे कुर्सी पर बैठ पाते हैं,वहीँ कुर्सी
का सौभाग्य है कि उसमें साहब विराजें और उसे सिंहासन में तब्दील कर बाज़ार के लायक
बना दें।यह मामला दो कौड़ी बनाम लखटकिया ग्लैमर का है,जिसे समझना आम आदमी के बस का
नहीं है।
साहब कोई आम साहब नहीं हैं।पढ़-लिख के साहब बनने वालों को
अब कोई पूछता भी नहीं,इसलिए उनकी कुर्सी
भी अपनी किस्मत पर रोती रहती है।साहब का संसर्ग पाने वाली कुर्सी धन्य है।पहली बार
कोई ब्रांड और यूएसपी वाले साहब ने उसको कृतार्थ किया है।साहब की यूएसपी है कि उनको
सुनने के लिए टिकट लगती है,स्पीच बिकती है।वे चलते-चलते रास्ते में अपना लालकिला
बना लेते हैं,रोज नया इतिहास गढ़ते हैं।ऐसे जादूगर साहब अपने बन्दों की तालियाँ
पाकर सातवें आसमान में हैं।इतने बड़े पैकेज के साथ वे जिस कुर्सी पर बैठेंगे,वह
क्योंकर न इतराएगी ? उसी कुर्सी को नीलामी में हासिल कर साहब के बंदे भी अगली पीढ़ी
का निर्माण आसानी से कर सकेंगे।
कुर्सी मिलना बहुत बड़े पुण्यों का फल होता है।कई लोग अपना
पूरा जीवन लगा देते हैं पर उस तक पहुँच नहीं पाते।कुछ निकट आते हैं तो दूसरे उसे
सरका देते हैं।पुण्याई से कुर्सी पाने वालों की संख्या बहुत कम है।अधिकतर मामलों
में बढ़िया मैनेजमेंट और शतरंजी चालों से ही कुर्सी हथियाई जाती है।इसमें
‘गन्दी-गन्दी-गन्दी बात’ जैसा कुछ भी नहीं होता।बड़ी और मार्के की बात यही है कि
कुर्सी पर उसी का हक बनता है जो इस पर बैठकर इसकी कीमत बढ़ाये;और आज किसकी कीमत
अधिक है,यह बाज़ार के हाथ में है।इसलिए जिस कुर्सी पर सबसे ज्यादा सट्टा या दाँव
लगे,वही कीमती है।सभी लोग जहाँ पाने वाली कुर्सी की कीमत लगाते हैं,वहीँ साहब जिस
कुर्सी पर विराजमान हो जाते हैं,उसी का बाज़ार-मूल्य बढ़ जाता है।इससे यह साबित होता
है कि कीमत कुर्सी की नहीं,साहब की है।सोचिये,जिस कुर्सी पर बैठने के लिए देश की कई
पुण्यात्माऐं व्यग्र हैं,उस पर साहब बैठ गए तो वह कितनी कीमती हो जाएगी ! ऐसी
पायेदार बड़ी कुर्सी साहब की पकड़ के बिना कब तक दो कौड़ी की बनी रहती है,यही देखने
वाली बात है !
एब्सोल्यूट इंडिया में १/१२/२०१३ को
3 टिप्पणियां:
आपके साहब की जय हो !!
कल 01/12/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
धन्यवाद!
धूल उड़ रही,
हम थामे निर्मलता झण्डा,
ऊष्मा बढ़ती,
पाल रहे अनुभव घट ठंडा,
गहरी चालें,
हाथों सज्जित ठूँठा डंडा।
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