गुरुवार, 7 नवंबर 2013

ओपिनियन पर बैन ज़रूरी !

06/11/2013 को नईदुनिया में

 
देश में इस समय दो ही चीज़ें चर्चा में हैं;ओनियन और ओपिनियन।जहाँ ओनियन आम आदमी की जेब पर भारी पड़ रहा है,वहीँ ओपिनियन सत्ताधारी दल पर।दोनों चीजों का सम्बन्ध कहीं न कहीं खाने से जुड़ा है।आम आदमी ओनियन को नहीं खा पा रहा है और ओपिनियन-पोल कुर्सी पर बैठे नेताओं को खाने में लगा है।इसलिए ज़रूरी हो गया है कि इन दोनों को बैन कर दिया जाय।इससे आम आदमी और सरकार दोनों को राहत मिलेगी।यह मांग कोई नई नहीं है।पहले भी ओनियन के मंहगे होने पर उसके निर्यात पर बैन लग चुका है और अब यदि कोई ओपिनियन सरकार पर मंहगी पड़ रही है तो इस पर भी बैन लगना निहायत ज़रूरी है।

सरकार कई सालों से आम आदमी को नचा रही है पर यह उसका विशेषाधिकार है।कोई ओपिनियन इस हद तक लोकतान्त्रिक नहीं हो सकती कि वह किसी सरकार को पोल-डांस करवाना शुरू कर दे।टीवी चैनलों पर समाचारों के नाम पर डरावने और क्राइम एपिसोड तथा हास्य के नाम पर फूहड़ और अश्लील कॉमेडी सरकार का सिरदर्द नहीं है क्योंकि इन सबमें आम आदमी रीझा रहता है।सरकार को ये कार्यक्रम इसलिए भी मुफ़ीद लगते हैं क्योंकि आम आदमी इन सबको देख-देखकर मंहगाई और भ्रष्टाचार जैसे दकियानूसी और सनातनी मुद्दों से थोड़ी देर के लिए अपना दिमागी-चैनल बदल लेता है।इसलिए उन चैनलों और कार्यक्रमों पर बैन लगाना जनहित में नहीं होगा।

ओपिनियन पोल पर बैन इसलिए भी ज़रूरी है कि इससे सरकार को बचे हुए समय को पूरा करना मुश्किल हो जाता है।वह शासन सँभालने के बजाय अपने सहयोगियों को साधने में ही जुट जाती है।जनता की ओपिनियन चुनाव के पहले जाहिर होने से सरकार को चंदे का टोटा भी पड़ जाता है और काफी बड़ा निवेश उसके हाथ से निकल जाता है।इस तरह ओपिनियन पोल से सरकार की पोल खुलने से बड़े अफसर भी आँखें दिखाना शुरू कर देते हैं।वैसे भी जबसे बड़े कोर्ट ने अफसरों को नेताओं और मंत्रियों के मौखिक आदेश लेने से मना कर दिया है,सरकार चलाना बहुत रिस्की हो गया है।इसलिए ऐसे विपरीत समय में सरकार को पोल-डांस के लिए मजबूर करना ‘चुनावी आचार-संहिता’ के उल्लंघन के दायरे में तो आता है ही,गैर-मानवीय कृत्य भी है।महत्वपूर्ण बात यह है कि मरणासन्न की निंदा हमारे शास्त्रों तक में वर्जित है।शायद इसी दिन के लिए कहा गया है कि ‘अकीर्तिम चापि भूतानि,मरणादतिरिच्यते’,अर्थात किसी का जीते-जी अपयश ,उसके मरने से अधिक है।

सरकार को पोल-डांस पर इसलिए भी एतराज है क्योंकि इस पर पहला और आखिरी अधिकार आम आदमी का ही है।जब वह भूखे पेट और नंगे बदन होकर सुपरहिट परफोर्मेंस दे रहा है तो मोटे पेट और भरी जेब वाली सरकार फ्लॉप होने का रिस्क क्यों ले ? ओपिनियन वही सटीक और ठीक होती है जो सरकारी-धुन में बजे,अन्यथा वह सिवाय शोर के कुछ नहीं है।विपरीत ओपिनियन-पोल का सरकार के धंधों और उसके कारिंदों पर प्रतिकूल असर पड़ता है।कोई भी सरकार ऐसे में आर्थिक और राजनैतिक नुकसान उठाने का जोखिम नहीं ले सकती,इसलिए जनता की बेहतरी के लिए ओनियन की तरह ओपिनियन पर बैन आवश्यक हो गया है।

 

2 टिप्‍पणियां:

राजीव कुमार झा ने कहा…

बहुत सटीक.
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संतोष पाण्डेय ने कहा…

बहुत बढ़िया। गज़ब की धार है। उच्च स्तरीय व्यंग्य।

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