सयाने बहुत पहले कह गए हैं कि ‘यावद् जीवेत् सुखम् जीवेत,ऋणं कृत्वा घृतम् पीबेत’ अर्थात् जब तक जियो,सुख से जियो,क़र्ज़ लेकर घी पियो।इस जीवन-सूत्र को हमने बड़ी शिद्दत से अपनाया है।पैदा होते ही हम पर ऋण चढ़ने लगता है।इस बारे में हमें पढ़ाई के दौरान ही पता चलता है कि हम पर माता,पिता और गुरू के नाम पर एडवांस में बकाया हो गया है।साथ में यह भी हिदायत होती है कि ये ऋण पूरी तरह से चुकता होने वाले नहीं हैं,इसलिए समझदार लोग इसे चुकाने की कोशिश ही नहीं करते।इस तरह का ऋण भले ही आभासी होता है पर वह हमारे डीएनए में पैबस्त हो जाता है।जैसे ही हम असल ज़िन्दगी से मुक़ाबला शुरू करते हैं,वह हमारे लिए खाने में ‘लोन’ की तरह हो लेता है।इस तरह हम ‘लोन-फ्रेंडली’ हो जाते हैं।
लोन बाँटने वाले भी बड़े सहृदय होते हैं।वह बार-बार हमारी चिरकुटपना का स्मरण कराते रहते हैं।अगर हम इस ज़रूरी जीवन-कर्म से चूक गए हैं तो वे दोपहर के खाने के गैर-ज़रूरी वक्त भी फोन पर याद दिलाते हैं कि लो न ! आपको गाड़ी चलानी नहीं आती पर नई अर्थव्यवस्था को ढंग से चलाने के लिए उनके दस्तावेजों में बस एक बार आपका अगूंठा लग भर जाए,उसे जड़ से काट लेने की प्रक्रिया वे स्वयं पूरी कर लेते हैं।माल उधार लेने वाला ‘बिरला’ ही पचाने की हैसियत रखता है।लोन लेने की हैसियत से अधिक हाजमा दुरुस्त होना ज़रूरी होता है।इसके लिए किंग-साइज़ का पेट और विलायती-वीसा आवश्यक अर्हता है।जिनको दो जून की रोटी का जुगाड़ नहीं,वे क्या खाकर भाग पायेंगे ?
कर्ज़ लेने के लिए बूता और जूता दोनों मजबूत होना चाहिए।जो इस मामले में कमजोर पड़ते हैं,पेड़ों से लटक जाते हैं।ऐसे लोग समाज के लिए अभिशाप हैं।इनके जीते रहने से तो हमारी नाक कटती ही है,मरने पर जेब भी।मुआवजे से हमारी अर्थ-व्यवस्था चौपट होती है।दूसरी ओर भारी कर्ज़ लेकर अर्थ-व्यवस्था को गति देने वाला नायक होता है।उसकी प्रतिष्ठा उसकी देनदारी से बड़ी होती है।वह कर्ज़ लेकर पेड़ पर नहीं चढ़ता,बल्कि आसमान में उड़ जाता है।कर्ज़ लेने का एक सलीका और शऊर होता है।सूटेड-बूटेड बंदा कर्ज लेते हुए भी ऋणदाता पर एहसान करता है।हमारे बैंक सार्वजनिक संस्थान हैं।फटेहाल और दीन-दुखियों के लिए खोले गए परमार्थ आश्रम नहीं।
कर्जदार होना आदमी का मौलिक अधिकार है।पहली कार से लेकर पहला घर तक कर्ज से उसके प्रेम को दर्शाता है।कर्ज सबको लेना चाहिए ताकि बाज़ार ज़िन्दा रहे।ईएमआई इसीलिए आई है,जिससे गरीबी किश्तों में मरती रहे।उसका एकदम से खतम हो जाना बाज़ार की सेहत के लिए ठीक नहीं होगा।अब तो लोन लेकर पढ़ाई भी हो रही है ताकि शुरुआत से ही उधार लेने का कौशल डेवलप हो सके।
कुछ लोग कर्ज़ का नाम सुनते ही बड़े संवेदनशील हो उठते हैं।संवेदनशीलता प्रगति के लिए घातक है।हमें आगे की ओर देखना चाहिए।हमारे प्रिय शायर ग़ालिब कह भी गए हैं कि ‘कर्ज़ की पीते थे मय और समझते थे,रंग लाएगी हमारी फाका-मस्ती एक दिन’।उन्हें कर्ज लेकर ही क्रांति आने की उम्मीद थी।ऐसा तो तब था,जब शायर कर्ज लेकर शराब पीता था।आज कर्ज़ लेकर शराब बेची जा रही है।कर्ज़ परेशान नहीं खुशहाल और दार्शनिक बनाता है।कर्ज तो लिया जाता है गम गलत करने के लिए ताकि परेशानी गड्ढे में गिरे।जिस आदमी को कर्ज़ लेने के लिए कोसा जा रहा है,उसने तो पीने वालों का कतई भला किया है।उसकी बनाई दवाई से जान-जहान की परेशानियाँ दूर हो रही हैं।
जब एक शायर को उम्मीद थी कि उसकी तंगहाली एक दिन ज़रूर रंग लाएगी तो कर्ज लेकर ऐश करने वाले का आत्म-विश्वास ऊँचा क्यों न हो ! कर्जदार कोई छोटी मछली नहीं जो किसी भी काँटे में फँस सके।छोटे-मोटे लोन लेकर सरकारी अफसरों से डरकर भागने वाले निश्चिन्त होकर रहें।कर्ज़ लेकर शराब पिएँ और देनदारी भूल जाएँ।हाँ,कर्ज़ भूलने से पहले अपना पासपोर्ट बनवाना न भूलें।
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