मंगलवार, 25 अक्तूबर 2016

चिकनगुनिया की चपेट में लेखक !

जिस चीज़ के बारे में दूर-दूर तक कोई शंका नहीं थी,वह दीर्घशंका बनकर हमारी पिंडलियों में समा गई। पोर-पोर दुःखने लगा,नस-नस पिराने लगी। पूरा शरीर लुहार की भट्ठी बन गया। सिर हमारे शरीर से मुक्ति पाने को छटपटा रहा था। श्रीमती जी ‘ठंडा-ठंडा कूल-कूल’ टाइप तेल लेकर उसकी मालिश किए जा रही थीं पर असर नदारद था। जिस बंदे के पैरों में सनीचर था,दिन भर एक जगह टिकता नहीं था,आज वह बिस्तर के नीचे उतरने की हालत में नहीं था। पर क्या करें,ऊपर वाला यह मजबूरी भी नहीं समझता। वाशरूम तो जाना ही था। जैसे ही पैर ज़मीन पर रखे,वे स्वतः अंगार बन गए। पंजे,तलवे और एड़ी खूब दहक रहे थे। तलवे चाँटने वालों की तरफ़ से भी यह बड़ा धक्का था। मैं वरिष्ठ बनने की कगार पर था और इधर तलवे सुर्ख हो रहे थे। नवांकुर अपना मिशन अब कैसे पूरा करेंगे ? थोड़ी देर के लिए मैं निजी गम भूल गया। हाँ,इस बात का अफ़सोस जरूर हुआ कि ऐसी उपलब्धि से वंचित हो जाऊँगा।


बहरहाल किसी तरह त्रिकोणीय मुद्रा में वाशरूम गया। पर यह क्या ! विष्ठा-विसर्जन को बैठा तो उठने का जोर ही न बचा। किसी तरह बजरंग बली की तरह अपनी ताक़त का स्मरण किया और बाइज्जत ‘स्वच्छ-सदन’ के बाहर आ गया। बमुश्किल अपनी छह बाई चार की खटिया पकड़ ली। तब तक श्रीमती जी ने हमारे पारिवारिक डॉक्टर को इस हादसे की खबर दे दी।

आधे घंटे के अंदर डॉक्टर साब आ गए। बड़ी जल्दी में थे। आते ही मुँह में थर्मामीटर घुसेड़ दिया। कहने लगे-सीज़न बहुत टाइट है। पुराने और वफादार कस्टमर हो,इसलिए आ गया। अपने लोगों को कष्ट से मरते नहीं देख सकता। थर्मामीटर निकाला और परचे पर कुछ नुस्खे लिख दिए। बोले-पाँच दिन तक इनका सेवन करो,फिर देखते हैं।

मैंने सहमते हुए डॉक्टर साहब से पूछा-क्या डेंगू तो नहीं है ? ‘यह चिकनगुनिया है। ’ उन्होंने आखिरी घोषणा कर दी। मेरे सामने अखबार की कई खबरें आँखों के सामने तैर गईं। हिम्मत करके फिर पूछ बैठा,’डॉक्टर साहब ! परेशानी की कोई बात तो नहीं है ?’ अब डॉक्टर साहब उखड़ गए।परेशानी का तो कोई इलाज नहीं है मेरे पास। मैं केवल शारीरिक बीमारियों का इलाज करता हूँ। तभी श्रीमती जी ने उनकी फीस और शुक्रिया दोनों अदा की। हमें झटका देकर वे झट से निकल लिए।

यह सब करते-कराते चार-पाँच घंटे बीत चुके थे। मैं फोन से बहुत दूर था। लड़के को गेम खेलने का इससे अच्छा मौक़ा नहीं मिल सकता था। वह गेम के कई लेवल पार कर चुका था। मुझे इस समय दुनियादारी से विरक्ति हो गई थी। दवा खाकर कुछ राहत मिली तो सोचा अब कमेन्ट खाए जाँय। जैसे ही फेसबुक खोला ,हड़कंप मचा हुआ था। दोस्त इस बात से बेचैन हो रहे थे कि अपने स्टेटस पर कमेन्ट खा कर यह बंदा कहाँ गुम हो गया ! बहरहाल,मैंने एक शेर के साथ आमद की,’दोस्तों की दुआएँ आखिर काम आईं,अच्छे-खासे थे,बीमार हो गए’। साथ में ‘फीलिंग चिकनगुनिया’ को चस्पा कर दिया।

क्या दुश्मन,क्या दोस्त,सब टूट पड़े। संवेदनाएं व्यक्त होने लगीं। कुछ दोस्तों ने तो प्री-श्रद्धांजलि-वक्तव्य भी तैयार कर लिए। बस देरी मेरी ओर से ही थी। एक जिगरी दोस्त का फोन तुरंत आया। कहने लगा-यार तू है बड़ा लकी। जब हट्टा-कट्टा था तो भी सबसे ज्यादा लाइक मारता था और अब देख ! आधे घंटे में ही चार सौ सत्तावन लाइक और नवासी कमेन्ट आ चुके हैं। और हाँ,तूने उन फलां वरिष्ठ से समझौता कर लिया क्या,जिन्हें तू अब तक उखाड़ने में जुटा था ?’

कुछ दवा का असर था और उससे ज्यादा हमारी हालत पर फेसबुक में मचे कोहराम का भी। मेरा सरदर्द हवा हो चुका था। बाकी अंग अभी बदस्तूर पिरा रहे थे पर दिमाग सक्रिय हो चुका था। मैंने दोस्त की बात का कोई जवाब नहीं दिया।बस नेटवर्क और तबियत ख़राब होने की बात कहकर रहस्यमय चुप्पी साध ली।

फोन रखे दो मिनट नहीं बीते थे कि हमारे घनिष्ठ वरिष्ठ साथी का फोन आ गया। फुसफुसाने वाले अंदाज़ में कहने लगे-संतोष,ऐसा करो कुछ दिन बिस्तर में ही आराम करो। लिखा-पढ़ी का जो भी तुम्हारा दायित्व है,हम भलीभांति निभा ही रहे हैं। दूसरे पाले वाले तुम्हें अपनी और घसीटना चाहेंगे। तुम इस समय कमजोर हो। भावुक तो तुम हो ही। भावनाओं पर नियन्त्रण रखना। इस बीमारी से एक बात का फायदा तुम्हें हुआ है। तुम्हारी छवि एक विवाद-पुरुष की बन चुकी है। इस दौरान निष्क्रिय रहोगे तो विवाद भी तुम्हारी तरह हल्के हो लेंगे और तुम्हारा पुरुषत्व फिर से हावी हो जाएगा। हमें उसी की ज़रूरत है। हाँ,जरा चैट-बॉक्स से बचे रहना। सबसे ज्यादा इन्फेक्शन वहीँ से आता है। यहाँ मैं सब मैनेज कर लूँगा। तुम सुन रहे हो ना ?’

मैंने उन्हें निसाखातिर करते हुए बताया-मगर इस सबमें हमारा लेखन चौपट हो जाएगा। बताते हैं कि यह बीमारी ज़रा ज्यादा खिंचती है। इतने दिनों तक अगर हम न खिंचे तो हमारा साहित्यिक तंबू तो सिमट लेगा। अगर खिंच गए तो हमारे न लिखने से विरोधी पाले वाले अपनी दुकान जमा ले जाएंगे। ऐसे में आपके लिए ही मुश्किल होगी। ’

हाँ,इसका डर तो हमें भी है। ऐसा करो,तुम कुछ मत लिखो। पहले जो लिखा है,उसी से लोग हलकान हुए पड़े हैं। कई लोग तो बीमार ही हो गए हैं तुम्हें पढ़कर । ऐसा करता हूँ मैं तुम्हारे पुराने लेखों की माला री-प्रिंट करवा देता हूँ। ’पर यह तो पाठकों के साथ छल होगा ? मैंने चिन्ता व्यक्त की। मेरी मूर्खता पर वे हँस पड़े-भाई,साहित्य में बने रहने के लिए सारे प्रपंच करने पड़ते हैं। आलोचक इसे ही साहित्य का पुनर्जागरण काल कहते हैं।यह बीमारी नहीं तुम्हारे लिए साहित्य में जमने का मुफीद समय है।तुम थोड़े दिन भूमिगत रहो। मैंने तो तुम्हारे साथ वाली फोटुएं भी क्रॉप कर डाली हैं।तुम कहीं नहीं दिखोगे तो विरोधियों को तुम्हारी बीमारी पर पक्का भरोसा हो जाएगा।

वे इत्ता कुछ कहके अंतर्ध्यान हो गए। मुझे भी दवा के असर से नींद आ गई। सुबह उठा तो श्रीमती जी ने एक बुके देते हुए बताया कि अभी अभी कूरियर वाला दे गया है। मन प्रसन्न हो गया कि अभी भी कुछ लोग बचे हैं जो हमें ठीक करने के लिए इस हद तक जा सकते हैं। तभी ताजे फूलों के बीच से एक चिट झाँकने लगी। मैंने उसे झट से निकाला।संदेश चमक रहा था-

चिरंजीव चूजे ! तुम्हारे बीमार होने से साहित्य पर बहुत बुरा असर पड़ा है।कई समीक्षाएँ अधर में लटक गई हैं। इससे लेखक हतोत्साहित व प्रकाशक आशंकित हो उठे हैं। ऐसा रहा तो हमारी साहित्यिक-यात्राएँ भी उठ जाएँगी।तुम्हारी टांगें काँपती हैं,इसे देखते हुए आगामी बैठकें स्थगित नहीं की जा सकतीं। पिछले हफ़्ते समीक्षा के लिए तुम्हें जो किताब दी थी,अब उसकी जरूरत नहीं रह गई है।हमें दूजा चूजा मिल गया है।उसने हलफ उठाया है कि समीक्षा लिखने तक वह बीमार नहीं होगा।तुम सम्पूर्ण आराम करो।और हाँ,डलहौजी की ‘साहित्यिक-यात्रा’ के लिए भी तुम अयोग्य घोषित किए जाते हो। पहाड़ पर तुम्हें चढ़ाकर हम किसी साहित्यिक-क्षति को फ़िलहाल बर्दाश्त करने की हालत में नहीं हैं। सुना है इस बीमारी में जोड़ बहुत दुःखते हैं और तुम इस वक्त किसी जोड़-फ़ोड़ के लायक बचे भी नहीं हो।फ़िलहाल,इतना ही। बुके के खर्च की चिन्ता मत करना। तुम्हारी पिछली समीक्षा का जो बकाया था,उसमें एडजस्ट कर दिया है। हम तुम्हारे लिए इतना तो कर ही सकते हैं। ’

तुम्हारा ही अशुभचिंतक

वरिष्ठ मुर्ग मुसल्लम

चिट पढ़ते ही हमें फिर से मूर्च्छा आ गई। तब से अब तक मैं साहित्य से भूमिगत हूँ। पता नहीं यह बीमारी और कित्ता लम्बा खिंचेगी !



4 टिप्‍पणियां:

सुभाष चंदर ने कहा…

vaah..ye rachna kahan chhipiu thi ab tak ...beech beech me line se hate to hain par fir vaapas ayeen hai ..sach kahun to mujhe yah aapki sabse achchhi rachna lagi .shilp ke lihaz se bhi
subhash chandar





सुभाष चंदर ने कहा…

vaah..ye rachna kahan chhipiu thi ab tak ...beech beech me line se hate to hain par fir vaapas ayeen hai ..sach kahun to mujhe yah aapki sabse achchhi rachna lagi .shilp ke lihaz se bhi
subhash chandar





संतोष त्रिवेदी ने कहा…

शुक्रिया गुरुदेव।

संतोष त्रिवेदी ने कहा…

शुक्रिया गुरुदेव।

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