वे सामने खड़े थे।बिलकुल धुले हुए।हम गले लगना चाहते थे पर उन्होंने साफ़ मना कर दिया।मैंने सोचा,हो न हो,ताज़ा-ताज़ा धुल के आए हैं इसलिए बच रहे हों।पर उनकी तरह उनके इरादे भी साफ़ थे।हमसे गले न मिलने की तमाम वजहें उनके झोले में मौजूद थीं।एक-एक करके उन्हें निकालने लगे।पहली तो यही कि वे ‘विश्वास’ से धुले हैं।’अविश्वास’ के गले मिलकर वे कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते।इससे अविश्वास को बल मिलेगा और विश्वास निर्बल होगा।दूसरी ख़ास वजह यह कि गले मिलना इतना आसान नहीं होता।इसके लिए आदमी को झुकना भी पड़ता है।और झुकना कमज़ोरी की निशानी है।एक वजह यह भी कि गले मिलने वाला भी यदि हिसाबी हुआ तो गला फँस भी सकता है।इसलिए किससे गले मिलना है यह वे ही तय करेंगे।
हमने उन्हें अविश्वास भरी नज़रों से देखा।वे आँख में आँख नहीं डाल रहे थे।उन्हें डर था कि तकनीक के नए ज़माने में हमारी आँखों में भरा लबालब ‘अविश्वास’ उनकी आँखों में कहीं ट्रांसफ़र न हो जाय।उन्होंने अविश्वास से नज़रें फेर लीं।हमने फिर भी हिम्मत नहीं हारी।कुर्ता-फाड़ जोश के साथ उन्हें ललकारा।नए-नए चीनी झूले में झुलाना चाहा पर वे अपनी जगह पर खड़े रहे।हम भी अड़ गए।अचानक ‘डील’ पर उतर आए।वे अट्टहास करने लगे।हमें उनकी हँसी पर विश्वास नहीं हुआ।हमने दन्न-से आँख दे मारी।वे आहत हो उठे।कहने लगे-‘यह मुझ पर नहीं देश पर हमला है।आँख भी कोई मारने की चीज़ है ! यह बच्चों का काम है।मारो तो जूते-चप्पल मारो,माइक उठाकर मारो।मारने में भी मौलिकता होनी चाहिए।बचकानापन छोड़ो,समझदार बनो।सद्भाव और विश्वास मारो।जिस दिन तुम इस लायक हो जाओगे,हमारा गला पकड़ लेना।फ़िलहाल,गले मिलने की अर्हता तुममें नहीं है।’
हमारी आँखों में अभी भी अविश्वास भरा था।गले मिलने के सभी हथकंडे विफल हो रहे थे।उनकी गर्दन पर पूरी तरह विश्वास सवार था।वे झुकते तो विश्वास गिर सकता था।हमारे लिए मौक़ा भी तभी बनता।इसलिए हमने अब उनके दिल पर वार किया।उनके और क़रीब पहुँच गए।उनको ‘दिल्लगी’ लगी।तभी उनके झोले से अचानक हम पर सर्जिकल स्ट्राइक होने लगी-तुमने बहुत बड़ा अपराध किया है।देश की गरिमा गिराई है।’मैं घबराकर उनके झोले में झाँकने लगा।मुझे वहाँ रोज़गार पाने के एक हज़ार एक तरीक़े वाली जादुई किताब और दो हज़ार उन्नीस के बोर्ड एग्ज़ाम का पेपर दिखा।मुझे तलाश इसी की थी।गले मिलने के बहाने अगर वो पेपर ‘हाथ’ लग जाता तो अपन जैसा ‘पप्पू’ भी पास हो जाता ! पर वे कुर्सी के इर्द-गिर्द भरतनाट्यम करने लगे।मेरा ध्यान भंग हो गया।कुर्सी मुझसे और दूर चली गई।
तभी बग़ल से शोर उठने लगा।आँख मारने के ख़िलाफ़ देश-व्यापी आंदोलन फैल चुका था।मीडिया ने स्थिति अपने हाथ में ले ली।सर्वत्र विमर्श ‘चालू’ हो गया।जगह-जगह कैमरे तैनात हो गए।आँख मारने से हुई व्यापक क्षति का आकलन किया जाने लगा।सबसे उत्साही रिपोर्टर ने तो मेरा गला ही पकड़ लिया।उसने मेरी निजी आँखों में अपनी आँखें डालकर पूछा,‘आपने आँख मारकर अशालीन कृत्य किया है।इससे सवा सौ करोड़ देशवासी शर्मसार हुए हैं।सरकार अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अब क्या मुँह दिखाएगी ?’
मेरे पास पहले ही समुचित मात्रा में विश्वास नहीं था,इस प्रहार से मैं अंदर तक हिल गया।भावी भूकंप की आशंका को देखते हुए मैंने आत्म-समर्पण कर दिया-यह मेरा पहला प्रयोग था,जो असफल रहा।मैं चाहता हूँ कि दो हज़ार उन्नीस जल्दी निपट जाए ताकि वो मेरी आँखों में आँखें डाल सकें और मैं उनसे गले मिल सकूँ।’ यह सुनकर रिपोर्टर सन्न रह गया पर वे भावुक हो उठे।
उनकी आँखों में अविश्वास की थोड़ी-सी झलक दिखी।खड़े-खड़े ही पूरे ‘विश्वास’ के साथ ‘राष्ट्रवाद’ चरने लगे।मुझे दो हज़ार चौबीस ज़्यादा दूर नहीं लगा।मैं ख़ाली हाथ पूरे अविश्वास के साथ घर लौट आया !
संतोष त्रिवेदी
3 टिप्पणियां:
बढ़िया लिखा है आपने। शानदार व्यंग्य प्रहार।
बढ़िया :)
शानदार व्यंग्य
एक टिप्पणी भेजें