चुनावों में काम के बखान के बजाय जुबान और बयान की जुगलबंदी अधिक ज़रूरी है।जिसकी जितनी बड़ी जुबान होगी,उससे उतना ही बड़ा बयान निकलेगा।पिछले दिनों एक के बाद एक कई ताबड़तोड़ बयान आए।उन बयानों ने जुबानों को केन्द्र में ला दिया।ख़ूब हो-हल्ला मचा,मतलब जुबान अपना काम कर चुकी थी।जुबान बंद होने से पहले बयानों ने अपना काम बखूबी कर लिया कर लिया।जब सामने वोटों की फसल लहलहा रही हो तो जुबान काबू में कैसे रह सकती है ? जिस तरह पकी फ़सल को काटने के लिए हंसिए की ज़रूरत होती है,उसी तरह वोट समेटने के लिए तीखी और तेज जुबान चाहिए।तगड़ा कम्पीटीशन है।इसे कोई हल्के में नहीं ले रहा नहीं तो चुनाव बाद खुद के हल्का हो जाने का अंदेशा है।
कुछ लोग कह सकते हैं कि उनकी जुबान फिसल गई है पर इस समय बिलकुल नहीं।भरे चुनाव में ऐसी फिसलन ही टिकने का फार्मूला देती है।रही बात फिसलने की,सो बाद में कभी भी फिसला या बदला जा सकता है।उस समय भी बयान काम आएगा।जुबान को यूँ ही नहीं मुँह के अंदर सेफ-कस्टडी में रखा गया है ! बयान निर्गत होने के बाद वह अंदर और मासूम सूरत बाहर।यानी बयानबाज नेताजी कुंदन की तरह दमक उठेंगे।जब बाय-डिफॉल्ट यह सुविधा है तो कोई जुबान और बयान की इस जुगलबंदी का प्रयोग क्यों न करे ?
जनता ने ख़ूब तय किया था कि अबकी बार वह मंहगाई और भ्रष्टाचार को निपटा के ही दम लेगी।आखिरी समय तक उसे यही यकीन था कि इस लोकतंत्र में कम से कम चुनावों के समय लगाम उसके हाथ में रहेगी।पर भारत भाग्यविधाता इतने कमजोर नहीं हो सकते कि वे दूसरे की हाँक पर चलने लगें।इसलिए चुनावों के चरम पर पहुँचते ही लगाम उपयुक्त और समझदार हाथों में आ गई।भोली जनता के माथे यह काम भी सलीके से नहीं होना था।
अब सब कुछ चाक-चौबंद है।कुछ जुबानें फिलवक्त बंद हैं।मार्केट में पर्याप्त मात्रा में बयान पहले ही आ चुके हैं।जनता की सेवा वही कर पायेगा जो इन बयानों की अधिक से अधिक मार्केटिंग कर लेगा।अब भी आपको लगता है कि जनता के पास करने के लिए कुछ बचा है ?
'डेली न्यूज़,जयपुर में 21/04/2014 को प्रकाशित
2 टिप्पणियां:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन 'ह्यूमन कंप्यूटर' और ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
आभार आपका !
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