हिन्दुस्तान में 29/04/2014 को ! |
हमारे देश में कुछ लोग चुनावों को लोकतंत्र का पर्व कहते हैं वहीं धार्मिक
प्रवृत्ति के लोग इसको आस्था से जोडकर देखते हैं और महाकुम्भ की संज्ञा देते हैं।अब
महाकुम्भ हो और कोई साधक उसमें डुबकी न लगाये ,यह कैसे हो सकता है ? जिस तरह
कुम्भ-स्नान में संतों को श्रद्धालुओं के ऊपर प्राथमिकता दी जाती है,ठीक उसी तरह
लोकतंत्र के इस महाकुम्भ में बाबाओं,इमामों और ज्योतिषियों को भरपूर मौका दिया
जाता है।अगर कोई बाबा केवल आशीष न देकर चुनावी-योग भी कराने लगे तो चुनाव आयोग का
काम काफ़ी आसान हो जाता है।
अपने योग के द्वारा देश-विदेश में धूम मचाने वाले और राम लीला मैदान में
मैराथन-दौड़ आयोजित करने वाले बाबा फ़िलहाल चुनावी-कुम्भ में डुबकी लगा रहे हैं।उनका
इरादा तो यह था कि नहान का सारा पुण्य उन्हीं के हिस्से में आ जाए पर मुई जीभ ने
दगा दे दिया।वे देश के कुछ पढ़े-लिखे लोगों की कुदृष्टि का शिकार हो गए।उनका कहा
हुआ भोले-भाले श्रद्धालुओं के लिए था,पर बीच में थर्ड-पार्टी मीडिया ने सारा
गुड़-गोबर कर दिया।उनके वास्तविक भक्तों ने उनके कहे का सारा दोष हिंदी के माथे धर
दिया है।अगर आधुनिक बाबा की बात आधुनिक भाषा अंग्रेजी में समझी जाती तो कोई झंझट
ही न होता।अब हिंदी मीडिया और हिंदी-पट्टी के लोगों के लिए यह शर्म की बात है कि
वो इत्ती-सी बात नहीं समझ पाए।
बाबा काले धन के विरुद्ध अभियान चलाने में भी सबसे आगे रहे हैं।जब काला धन इस
चुनावों में कोई मुद्दा नहीं बन पा रहा था तब सरे-आम मंच से इसकी सार्थकता पर
उन्होंने फुसफुसाहट भरा वक्तव्य देकर बता दिया था कि वो इसके लिए कितने प्रतिबद्ध
हैं ? ऐसे बाबाओं और योगियों की इस देश की राजनीति को सख्त ज़रूरत है।नेताओं के
जहरीले बयानों से आजिज जनता को इस लम्बे चुनावी-कार्यक्रम में ब्रेक की घोर
आवश्यकता है।ऐसे शर्मीले और गर्वीले बयान जब संतों और योगियों के श्रीमुख से
निकलते हैं तो चुनावी-चखचख से थके-हारे मतदाता को गहरी विश्रांति मिलती है।इन
बयानों के आते ही वह सारे काम छोड़कर अनुलोम-विलोम में लग जाता है।
चुनाव-आयोग को चाहिए कि आधुनिक बाबाओं के ऐसे योग के कई कार्यक्रम आयोजित करे
ताकि मतदाता-जागरूकता कार्यक्रम को और भी प्रभावी बनाया जा सके।
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