अंततः वे लालकिले में चढ़ाई करने में सफल
हो गए।पिछली बार वाला लालकिला नकली था पर लोगों को दहाड़ असली सुनाई दी थी।उसी
उम्मीद में इस बार कई लोग यह देखने बैठे थे कि नकली लालकिले से जो सीना छप्पन इंच
फूल सकता है,असली लालकिला पाकर कहीं वह वह फूल कर कुप्पा न हो जाय ;पर हुआ इसके
उलट।लालकिले से क्रांति की ज्वाला धधकने के बजाय आध्यात्मिक प्रवचन की गंगा बह
निकली।अब बारी थी आलोचकों की,कुछ ने एकदम से पलटी
मारी।उनने एक सुर से कहा,ऐसा पहली बार हुआ है।यानी उन्होंने फिर
से इतिहास रच दिया है ।
लालकिले में पहुँचकर उनके अचानक इस तरह
शान्तिप्रेमी बन जाने से विरोधी सदमे में पहुँच गए ।वो लालकिले से उनकी ललकार
सुनने की प्रतीक्षा में थे,पर निराश हुए।ख़ुशी की बात यह रही कि देश
के कुछ मान्यताप्राप्त बुद्धिजीवियों और धर्मनिरपेक्ष खेमे को भी यह भाषण बहुत
सुहाया है।अब इस बात पर उनकी आलोचनाएँ शुरू हो गई हैं कि उन्होंने मौके की नज़ाक़त
देखते हुए अपने खेमे और खूँटे बदल लिए हैं।पर इस बात पर किसी का ध्यान नहीं कि
आखिर यह सब हुआ कैसे,जबकि मंहगाई और भ्रष्टाचार की रेटिंग
पहले की ही तरह मेनटेन है ! ऐसे में उन्हें प्रशंसा-पत्र बाँटने के क्या कारण हो सकते हैं ?
सच पूछिए तो भाषण वाकई में कमाल का था,जिससे बेचारे
बुद्धिजीवी भी उसकी लपेट में आ गए।उन्हें बहुत दिनों बाद लालकिले से दम्भपूर्ण और
रोबोटनुमा भाषण सुनने से राहत मिली।वस्तुतः काम के दो ही स्तर होते हैं,कहना और करना।अब
पिछले कई सालों से काम करने को लेकर इतनी ज्यादा चिल्लाहट हो चुकी है कि उस ओर कोई
सोचना भी नहीं चाहता।यहाँ तक कि मंहगाई और भ्रष्टाचार पर जनता ने समझौता कर लिया
है,फिर वे उस पर क्यों और क्या बोलें ? हाँ,बड़े दिनों बाद जनता
को कुछ मीठे बोल जरूर सुनाई दिए हैं।बुद्धिजीवियों को भी वह मिठास भा गई तो उसमें
उनकी क्या गलती ? इस जादूगर ने कबूतर छोड़े नहीं बल्कि पकड़े हैं ! शांति कहाँ तक अपने को बचा पायेगी
!
वे लोग बड़ी ग़लतफ़हमी में हैं जिन्हें
लगता है कि भाषण से राशन नहीं मिलता।आम आदमी की बात छोडिये,अबकी बार तो कवि,लेखक और प्रमाणित चिन्तक भी तृप्त हो गए हैं।यदि आपको इस भाषण की कला पर तुलसीदास की पंक्तियाँ ‘इंद्रजालि कहुं कहिय
न बीरा।निज कर काटइ सकल सरीरा’ की याद आ रही है तो
आप गलत हैं।जादूगर ही जानता है कि वह जो दिखा रहा है,असली नहीं है,पर देखने वाले को तो
असली लगता है और यही सबसे ज़रूरी है।
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