शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

हमें चाहिए ऐसी आज़ादी !

हर साल हमें आज़ादी के दिन की बेसब्री से प्रतीक्षा रहती है।क्या है ना कि आज़ादी शब्द सुनकर ही हमें झुरझुरी होने लगती है।दरअसल,हमारी स्वाभाविक प्रवृत्ति ही आज़ाद और बिंदास रहने की है।हम कतई नहीं चाहते कि हमारे कहने या करने पर किसी प्रकार की कोई बंदिश हो।हम आज़ादी को लेकर पूरी पारदर्शिता चाहते हैं।घर हो या बाहर,हम बस अपने मन से सब कुछ करना चाहते हैं।हमको लगता है कि आज़ादी दिलाने वाले शूरवीरों ने हमारी इस ज़रूरत को सही ढंग से समझा था,तभी उन्होंने हमारी सुख-सुविधा के लिए अपनी जान लगा दी थी।इसलिए आज़ादी का पर्व हमें सबसे अच्छा लगता है।


हमारी मान्यता है कि आज़ादी बिना किसी टर्म्स एंड कंडीशंस अप्लाई के हमें सुलभ होनी चाहिए।हम अपनी खटारा कार भी लेकर सड़क पर निकलें तो उसकी पों-पों से दस-बीस कोस तक जाहिर हो जाय कि हम आ रहे हैं।इससे दूसरे लोग सतर्क होकर हमें खुला रास्ता दे दें।हमें बड़ा खराब लगता है ,जब अस्सी की गति से चलती हमारी फर्राटा अचानक लाल बत्ती पर रुक जाती है।हम कम से कम आज़ादी के दिन बिना किसी सिग्नल के सारे फाटक क्रॉस कर जाँय,भले ही रेलवे का फाटक क्यों न हो ! ऐसे में कोई भी ट्रैफिक वाला यदि हमें रोकता है तो हमारी ‘आज़ादी-सेलेब्रेशन’ को बड़ा धक्का लगेगा।हमें तुरत अहसास हो जायेगा कि हम रस्मी तौर पर ही आजाद हैं।ऐसी आज़ादी की कल्पना हमारे सपने  को भंग करती है।अपनी गाड़ी और सड़क पर हमारा समान रूप से अधिकार होना चाहिए ताकि हम सड़क में कहीं भी पार्किंग बना लें।
हमें सच्ची आज़ादी तभी मिलेगी,जब ऑफिस में हमारी टेबल फालतू की फाइलों से रहित होगी।हम घूमने वाली कुर्सी पर विराजमान हों और हमारी जिस दिशा में नज़र जाए,केवल सेकेट्री ही दिखाई दे।हम केवल उसी से डिस्कस करें और सारे समाधान खोजें।थोड़ी-थोड़ी देर के अन्तराल पर चाय-समोसे आते रहें;इससे हमारे काम की गुणवत्ता बढ़ेगी,साथ ही हमारे घरेलू खर्च में अप्रत्याशित रूप से बचत होगी।हम शुगर से भी आज़ादी चाहते हैं ताकि होली-दीवाली के अलावा भी मिठाइयों के डब्बे शालीनता से उदरस्थ कर सकें।ऐसा न होने पर हमें केवल नमकीन काजू और ड्रिंक पर ही निर्भर रहना पड़ेगा।
हमें फाइलों पर दस्तखत करने से भी आज़ादी चाहिए।अगर हमें मजबूरन किसी फाइल पर दस्तखत करने ही पड़ें तो उसके लिए बनी बनाई मुहर को ही मान्यता प्रदान की जाए।इससे हमें ऑफिस से निकलने की भी आज़ादी हासिल हो जाएगी।हम गंगा में डुबकी लगायें या धन की मटकी में,इसकी आज़ादी हमें होनी चाहिए।धन हमारी अपनी गाढ़ी कमाई का है,सो उसे देश के लोकल बैंक में रखने के बजाय स्विस बैंक में सुरक्षित रखने की आज़ादी तो ज़रूर मिलनी चाहिए।साल में दो-चार विदेश यात्राओं की भी व्यवस्था हो ताकि सपरिवार हमें इस नरक से कुछ समय के लिए आज़ादी मिल सके।
अगर इस तरह की कोई आज़ादी नहीं मिलती,आज़ादी का पर्व मनाने का कोई मतलब नहीं बनता।हर वर्ष आज़ादी को बरक़रार रखने का संकल्प लेना केवल पाखंड ही है,जब तक यह देश हमें इस तरह की आज़ादी नहीं मुहैया करा सकता।अगर नेता चुनाव के पहले घोषणाएँ करने को आजाद हैं,चुनाव जीतकर उन्हें भुला देने के लिए आज़ाद हैं तो,फिर हमारी आज़ादी पर प्रतिबन्ध क्यों ?

नईदुनिया में 15/08/2014 को प्रकाशित

1 टिप्पणी:

कविता रावत ने कहा…

स्वतंत्रता दिवस पर गहन चिंतन .. सटीक सामयिक प्रस्तुति ....अब कौन बिल्ली के गले घंटी बांधे यही सब सोचते रह जाते हैं ..
राष्ट्रीय पर्व की हार्दिक शुभकामनायें!

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