बंगला बिलकुल सन्न रह गया है।अपने अतीत को देखते हुए उसे उम्मीद नहीं थी कि इतनी जल्दी वह उजाड़ हो जाएगा।कल तक जहाँ हर कोना रोशन था,आज वहीँ घुप्प अँधेरा है और माहौल में चिर शांति।बंगले के मालिक को ज़बरिया बेदखल कर दिया गया है जिससे वह फ़िलहाल अनाथ हो गया है।बंगले से उसके मालिक का गहरा लगाव था,जिसने उन्हें ‘बंगला-पकड़’ बनने की ज़ोरदार प्रेरणा दी।जो लोग फ्लैट्स में थे,उन्हें बंगले को देखकर चिढ़ उठती थी।आखिर उनको पाने की अर्हता वो भी रखते थे पर ‘बंगला-पकड़’ के रहते यह कार्य दुष्कर था,पर वे अब ठहाके लगा रहे हैं ।
जिस प्रकार हारिल पक्षी लकड़ी को किसी भी सूरत में नहीं छोड़ता,उसी प्रकार वे भी बंगले को न छोड़ने को लेकर प्रतिबद्ध थे,पर बिजली-पानी ने सारी योजनाएँ पटरी से उतार दीं।उन्हें अपनी चिंता कतई नहीं है।अब उनके बिना बंगले की कौन वैसी संभाल कर पाएगा,अपनापन दे पाएगा ? सम्मान कायर था,सो उस बंगले से पहले ही भाग गया था,पर सामान अंत तक डटा रहा,प्रतिरोध करता रहा।आखिरकार बिजली-पानी के भी मैदान छोड़ जाने के बाद उसे सड़क पर आना पड़ा।अपने प्यारे बंगले को छोड़ पाना,फर्श से गलीचों और कालीनों को समेट पाना ,यह सब कितना मुश्किल था;यह दर्द वो नहीं जान सकते जो नोटिस मिलने के पहले ही भाग खड़े होते हैं।वे कायर तो हैं ही,संवेदनहीन भी हैं जो अपनों को अकेला छोड़ जाते हैं।
‘बंगला-पकड़’ जी की यूएसपी ही ‘पकड़ना’ रही है।उन्होंने हमेशा से सत्ता को पकड़ना ही अपना उद्देश्य बनाया हुआ था पर पिछले चुनावों में जनता ने उन्हें जमीन पकड़ा दी।इसके लिए वे बिलकुल भी तैयार नहीं थे,पर होनी को कौन टाल सकता है भला ? ज़मीन पकड़ने के बाद बंगले पर उनकी पकड़ बरक़रार रही पर कुछ जलकुक्कुड़ों को उनका यह ‘पकड़ानुराग’ पसंद नहीं आया।उन्होंने इसका विकल्प ढूँढना शुरू किया और उनको नोटिस पर नोटिस पकड़ाने लगे ।वो भी ठहरे ‘धरतीपकड़’ की तरह मज़बूत कलेजे वाले।जिस तरह चुनाव-दर-चुनाव ‘धरतीपकड़’ की जमानत जब्त होती रही,’बंगलापकड़’ ने नोटिस-दर-नोटिस अपनी इज्ज़त उछलने की परवाह नहीं की।बिजली-पानी ने आखिर दम तक यदि उनके साथ वफ़ा निभाई होती तो वे आज भी हरे-हरे लॉन पर अपने डॉगी को टहलाते होते।
बहरहाल,बंगला बिलकुल सूना है।उसकी व्यथा को खुले आसमान में रहने वाला या गंदी बस्ती में झुग्गी बनाकर उसे अपनी ज़िन्दगी समझने वाला क्या जानेगा ?बंगलों का मिजाज़ भी उनके रहने वालों जैसा ही हो जाता है।वे एक दिन की भी मनहूसियत नहीं झेल सकते।मालिक ठाठदार हो तो यह दर्द और बढ़ जाता है।’बंगलापकड़’ को इस बात की चिन्ता कम थी कि बंगला छोड़ने पर उनका क्या होगा,वे तो कोई और ‘ठिया’ पकड़ लेंगे;पर उन्हें फ़िक्र तो उस बंगले की ज्यादा थी,जो उनके बिना बिलकुल वीरान हो गया।नहीं लगता है कि बंगले को किसी और से वह असीम प्यार मिल पाएगा,जिससे ताज़ा-ताज़ा वह महरूम हुआ है।कोई है जो एक बंगले के पक्ष में इतनी मजबूती से खड़ा हो और अपने दुःख को भूलकर खुद को उसके दुःख में शामिल कर ले ?
©संतोष त्रिवेदी
नईदुनिया में प्रकाशित
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