गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

कानून जी और आम आदमी !





हम बाज़ार पहुँचे तो नवरात्र और दशहरे की चहल-पहल सर्वत्र विद्यमान थी। बच्चे रावण के पुतले को लेकर उत्साहित थे।अचानक मुख्य बाज़ार में प्रवेश करते ही कानून जी मिल गए। वे पूरे बाजू का सफ़ेद कुर्ता पहने हुए थे। हमको देखते ही उनके दोनों बाजुओं में एकदम से हरकत आ गई । हमने बड़े ही आत्मीय भाव से उनका हाल पूछा,’आप इस आम बाज़ार में कैसे?’वे तनिक त्यौरियाँ चढ़ाकर बोले,’हम अपने लिए यहाँ नहीं आए हैं। दर-असल आम आदमी आजकल सड़क पर है और हमें उसको खास सन्देश देना है ,सो हम लहू की तलाश में हैं।मगर सन्देश देने के लिए तो कलम-स्याही से आप पत्र लिख सकते थे,लहू क्यों ? मैंने डरते हुए पूछा। अब वे अपनी पर उतर आए थे और कहने लगे,समय बहुत तेज़ी से बदल रहा है। हमारे बुजुर्गों ने कलम और तलवार को एक ही माना है ,सो जहाँ कलम से काम नहीं आता वहाँ तलवार से काम लेने में कोई हर्ज़ नहीं है। आखिर तलवार का काम भी तो कलम करना ही है,इसीलिए बाज़ार तक आए हैं।

हमने अब रहस्य को खोलने की गरज से पूछा ,’अब यह आम आदमी कब से इतना खास हो गया है कि आपको उसके लिए इतना वक्त निकालकर यहाँ तक आना पड़ा?’

देखिए,हम खास तौर से आम आदमी को यह बताने आए हैं कि इस देश में एक कानून है और वह कतई कमज़ोर नहीं है। कानून का काम-काज देखने वाले जब हम हैं तो हम जो भी कहेंगे,वही तो कानून हुआ ना...? सड़क वाले आदमी की यह हिम्मत कि वह हमारे घर में आकर हमें ललकारे और हम चुपचाप बैठे रहें,यह संभव नहीं है। कानून अंधा हो सकता है पर बहरा नहीं। देश-सेवा करते हुए जो भी मुश्किलात आएँगी,हम उनसे निपटने में पूरी तरह तैयार हैं।कानून जी अपनी रौ में बहे जा रहे थे।

हमने कलम से पढ़ाई की है पर कानून में यह तो कहीं नहीं लिखा है कि इस कलम की स्याही हमेशा नीली ही हो। हमारी पीढ़ियों ने देश को बचाने के लिए अपना लहू बहाया है तो हम अपनी कुर्सी और सत्ता के लिए दूसरे का लहू क्यों नहीं बहा सकते ?यह सब इसलिए कर रहे हैं कि संविधान को बचाने की शपथ हमने खुलेआम ली हुई है और हम उसे हर हाल में पूरा करने को प्रतिबद्ध हैं। भले ही देश में चोर-लुटेरे,माफिया अपनी पूरी ताकत से सक्रिय हों पर इस वज़ह से कानून भी तो सक्रिय है। ऐसा न होने पर हमारा औचित्य ही क्या रह जायेगा ?’

पर इससे क्या आप कानून को अपने हाथ में नहीं ले लेंगे ?’ मैंने सकुचाते हुए पूछा। उन्होंने तुरत अस्वीकृति में सिर हिलाया और बोले,’हम ही तो साक्षात् कानून हैं।आम आदमी की जगह सड़क पर ही है और हम यह भी सुनिश्चित करेंगे कि वह वहीँ रहे क्योंकि वह वहाँ से सीधे संसद की ओर जा सकता है। इस लोकतंत्र का तंत्र हमारे पास है जो संसदीय-कवच के अंदर सुरक्षित है और लोक फटा-कुरता पहने सड़क पर केवल चिल्ला रहा है। हम सभी को यह आश्वस्त कर देना चाहते हैं कि देश के लिए लहू बहाने में हम कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे । ऐसा कहकर कानून जी ने लंबी साँस ली और हम मौका पाकर आगे बढ़ गए,जहाँ बच्चे रावण के पुतले को देखकर चहक रहे थे ।
'डीएलए' में 25 अक्‍तूबर 2012 को प्रकाशित !

कोई टिप्पणी नहीं:

साहित्य-महोत्सव और नया वाला विमर्श

पिछले दिनों शहर में हो रहे एक ‘ साहित्य - महोत्सव ’ के पास से गुजरना हुआ।इस दौरान एक बड़े - से पोस्टर पर मेरी नज़र ठिठक ...