नईदुनिया में ३०/०९/२०१३ को |
वे आराम से चादर तानकर
सोये हुए थे।अचानक उन्हें लगा कि देश और संविधान ख़तरे में है सो वे क्रांति की
अगुवाई के लिए उठ खड़े हुए।सार्वजनिक रूप से लोग उनके गायब होने की चर्चा लगातार
करते रहते थे पर अब पता चला है कि दरअसल वे क्रांति करने के लिए हिम्मत जुटाने में
लगे थे ।जैसे ही दागियों को बचाने वाला अध्यादेश संकट में फंसता दिखा,उनको क्रान्ति का आइडिया मिल गया।वे उस अध्यादेश को ढूँढते हुए
प्रेस-कांफ्रेंस की ओर भागे।वहाँ अध्यादेश का गुणगान करने में लगे अपने प्रवक्ता
से माइक लिया और एकदम से फट पड़े।उनके इस तरह सक्रिय होने से हर तरफ हल्ला मच
गया।उन्होंने उस अध्यादेश को बकवास और उसे लाने वालों को ‘नानसेंस’ घोषित कर दिया।वे इतने मूड में थे कि अगर बेचारा
अध्यादेश उस वक्त मिल जाता तो उसकी चिन्दी-चिन्दी उड़ा देते ।बहरहाल,यह कमी उन्होंने सरकार के बचे-खुचे कपड़ों को तार-तार कर पूरी कर ली।इस तरह
की हाइटेक क्रांति का बिगुल बजाकर वे उठ लिए ।
इस बीच मीडिया उनके
दुर्लभ बोल रिकॉर्ड कर चुका था।बस,उनकी क्रान्ति यहीं तक थी।इसके आगे का काम सरकार और
उनके सलाहकारों का है।वे फ़िर से अंतर्ध्यान हो गए हैं और उनकी सरकार किसी कोने-अतरे में अपना मुँह छिपाने का जतन करने में लगी है।
उनको पता है कि क्रांति
कैसे की जाती है।जमाना बदल रहा है सो नए जमाने की क्रांति भी नए टाइप की होनी
चाहिए।पहले कभी भले ही कठिन संघर्ष के साथ क्रांति की शुरुआत होती रही हो, लंबा समय लगता रहा हो,पर अब हाईटेक ज़माने में क्रांति भी हाईटेक हो गई
है।जब भी अहसास हो कि बहुत दिन से क्रांति नहीं हुई,बस हो जाती है।इस मामले
में उनका सीधा और शॉर्टकट फंडा है,’
आओ,फाड़ो और चले जाओ।’उत्तम प्रदेश के पिछले
चुनावों में उन्होंने मंच से ही विरोधी पार्टी का घोषणा-पत्र बड़े जोशीले तरीके से
फाड़ा था।बाद में पता चला कि मतदाताओं ने वोटों से लबालब उनका बैलट-बॉक्स ही गुल कर
दिया।उस कागजी-क्रांति से वे लगातार प्रेरित होते रहते हैं ।
देश में जब-जब जनता
सड़कों पर निकली है,वे किसी खोह में बैठकर इस बात का शोध करने में लग
जाते हैं कि कब और किस तरह सबके सामने आया जाए।जब दुखी जनता का दर्द उनसे नहीं
देखा जाता तो कैमरों के उजाले में सहसा प्रकट होते हैं,कागज फाड़ते हैं और चल देते हैं।जब इसी तरह से क्रांति आ सकती है तो इसके
लिए लम्बे आन्दोलन करना वाकई मूर्खता है ।
इस अचानक हुई क्रांति से सभी दागी हतप्रभ हैं।उनके साथ सबकी सहानुभूति
है।उनमें कोई चारा खाए बैठा है तो किसी ने खदान गटकी हुई है ।कोई कोयला हजम किए
हुए है तो कोई फाइलें खा गया है।राजनीति में इसी तरह का खाना है,वे तो बस किसी तरह जीवन-निर्वाह कर रहे हैं।ऐसी जनसेवा बेखटके हो सके ,इसके लिए जल्द से जल्द कदम उठाने ज़रूरी हैं ,पर अध्यादेश को फाड़कर
क्रांति करने की उनकी ललक से दागी बेहद दुखी हैं।उनको लगता है कि वे अब जनसेवा
कैसे कर सकेंगे ?
1 टिप्पणी:
ग़ज़ब भयों रामा, जुलम भयों रे
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