गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

चारे ने बेचारा किया !

जनसंदेश में 3/10/2013 को।

ऐसा जुलुम पहली बार हुआ है। जो काम आम आदमी के वश का नहीं था,उसे नामुराद चारे ने कर दिया। राजनीति को ओढ़ने-बिछाने और उस पर सवारी करने वाले को चारे ने दुलत्ती मार दी है। यह बिलकुल हजम होने वाली बात नहीं लगती कि चारा हजम करने वाले को उसी चारे ने हजम कर लिया। हालाँकि उन्हें कारागार पहुँचने पर परेशान होने की कतई ज़रूरत नहीं है क्योंकि उनके आराध्य की जन्मस्थली भी वही है।

लोग बुढ़बक हैं जो समझते हैं कि उन्होंने अपराध-टाइप का कुछ किया है। राजनीति केवल अवसरों का खेल है,जिसके सामने जो आएगा,उसी से तो वह काम चलाएगा। तब पुराना जमाना था,ज़्यादा समझदार और पढ़े-लिखे लोग थे नहीं। टूजी,पनडुब्बी,कोयला,हेलीकाप्टर इनका नाम नहीं सुने थे। सामने चारा दिखा,चर लिया। अब ये थोड़ी ना पता था कि भ्रष्टाचार की वैतरणी में यह पार भी न लगा पायेगा। लोग तो डूबते में तिनके का सहारा ढूँढते हैं,उनके पास तो चारा था। उन्हें क्या पता था कि बुढ़ौती में यही बेसहारा कर देगा ! अब वे कारागार में चारा-चालीसा का पाठ करेंगे।

कहते हैं कि योद्धा कभी हार नहीं मानता। उसके पास कोई न कोई दाँव मौजूद रहता है। फ़िर वे तो राजनैतिक योद्धा ठहरे। उनके पास कई गुप्त दाँव होते हैं। वे कारागार भी गए हैं तो जनसेवा के लिए ही। यह सेवा उनसे कोई नहीं छीन सकता है। जो लोग ऐसा सोचकर उछल रहे हैं,वे नादान हैं। अब उनके पास चारा न सही,रबड़ी तो है ,उसी से काम चलाएंगे। इसलिए उनके प्रशंसकों को दुखी होने की ज़रूरत नहीं है। जब माँ-बेटे मिलकर देश चला सकते हैं तो वह अपनी राजनीति क्यों नहीं ? फ़िर अभी तो वह जिंदा भी हैं !

राजनीति भी कैसे-कैसे मजाक कर लेती है ? जिस व्यक्ति ने राजनीति के कुटिल-खेलों को हँस-हँसकर खेला,मंहगाई और भ्रष्टाचार से दुखी जनता का भरपूर मनोरंजन किया,आज उसी राजनीति ने उसके साथ उल्टा मजाक किया है। कभी किंग-मेकर की भूमिका में रह चुके व्यक्ति को एक जेलर के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया है। यह बात चारे के हाजमे से भी कठिन लगती है। यह अकेले भैंस और गायों की साज़िश मात्र नहीं है। इसमें हाथी और शेर जैसे बड़े खिलाड़ी शामिल हैं। उन्हें खुद तो पूरा जंगल साफ़ करना आता है लेकिन अगर कोई घास-फूस जैसा चारा खा ले तो उन्हें  तकलीफ होती है। जनता यह सब समझ रही है,जानवर भी समझ जायेंगे।

चारे ने उनको कितना ही बेचारा कर दिया हो,राजनीति कोई न कोई चारा ढूँढ लेगी। यह संकट एक अकेले उनका नहीं है। जनसेवा करने में ऐसे हाजमा वालों की बहुत ज़रूरत है। चारा हजम करने के बाद आज भले ही गोबर दिख रहा हो,मगर यहीं गोबर आगे चलकर प्रचंड ईंधन का काम करेगा। एक सबक इस मामले से और मिलता है कि राजनीति में मजबूत हाजमे वालों की ही पूछ रहेगी। गाय की पूँछ पकड़कर वैतरणी पार करने वाले कभी भी चूक सकते हैं।

फ़िलहाल, जानवर अपने चारे को गोबर बनता देख रहे हैं और आम आदमी उस गोबर से बनते अपने भविष्य को, जो बहुत दिनों से कारागार में कैद है।

हरिभूमि में 4/10/2013 को प्रकाशित।

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

चरति माने होता है घूमना, चारा इसलिये नाम पड़ा कि वह घूम घूम कर खाया जाता है। बैठे बैठे खा गये श्रीमान तो अब जेल घूम रहे हैं।

अजय त्यागी ने कहा…

खाना और फिर हजम कर लेना सब के बस का थोड़े ना होता है। हाजमे करने के मामले कांग्रेस की टक्कर का कोई ना हुआ और शायद आगे होने की होने की जरूरत भी ना पड़े। क्योंकि कुछ बाकि रहने की उम्मीद ही नहीं है। हाजमा हो तो ऐसा की ड़कार लेने की भी जरूरत ना रहे।

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