शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

दागियों पर रहम की अपील।

नेशनल दुनिया में 4/10/2013 को।
कुछ नेताओं को चारा हजम करने के मामले में दोषी पाया गया है,इससे हमें बेहद दुःख पहुँचा है।ये नेता केवल दोषी होते तो कोई बात नहीं थी।इसके पहले न जाने कितने माननीय दोषी पाए गए हैं पर उन्हें दागी बनने का अभिशाप नहीं झेलना पड़ा।चारा घोटकर खा जाने वाले दोषी नए टाइप के दागी बन गए हैं क्योंकि अब वे जनसेवा ही नहीं पशुसेवा भी नहीं कर पाएँगे।उनके चुनाव लड़ने पर न्यायालय ने अड़ंगा लगा दिया है,यही तकलीफदेह बात है।इसी का अंदेशा हमारी सरकार को भी था लेकिन कुछ लोगों ने बनता खेल बिगाड़ दिया है .

ये वाले दागी बड़े निरीह और कमजोर किस्म के निकले।बड़े-बड़े पुल,लंबी सड़कें और कोयला खदानें डकारने वाले मजे में हैं जबकि घास-फूस से गुजारा करने वालों को राजनीति यानी जनसेवा से निर्वासन दिया जा रहा है। यह कहाँ का न्याय है ? जैसे मनुष्य के आगे पशु निरीह और बेबस होते हैं,उनका चारा पचाकर ये बेचारे दागी अब गोबर भी नहीं कर पा रहे हैं। जब जमाना टूजी,हेलिकॉप्टर,पनडुब्बी और कोयले के युग में प्रवेश कर गया हो,ऐसे में घास-फूस खाने को घोटाला कहना निहायत मूर्खता और नादानी है।

सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसे जनसेवकों,पशुसेवकों को यदि दागी करार देकर बाहर बैठा दिया गया तो फ़िर राजनीति कौन करेगा ? हम पड़ोसी देशों से भी ऐसे उत्पाद को आयातित नहीं कर सकते क्योंकि उनकी क्वालिटी यहाँ से भी घटिया है।इसलिए राजनीति को जीवंत और हंसोड़ बनाये रखने के लिए ऐसे दाग-प्रूफ नियम होने चाहिए कि किसी तरह के घपले-घोटालों के छींटे राजनेताओं तक न पड़ें ।इस तरह के किसी प्रस्ताव पर सभी दलों की सहमति भी है पर यह सब इतनी जल्दी होगा,अंदेशा नहीं था.सच्चा लोकतंत्र यही है कि जनसेवा करने वालों के हाथ और मुँह बिलकुल खुल्ले रखे जांय,ताकि वे बेखटके अपनी सेवाएं जनता को दे सकें.।कोई दागी है या नहीं ,इस बात का फैसला भी जनता के हाथ में होना चाहिए न कि कानून के। आखिर लोकतंत्र में जनता ही तो असली निर्णायक होती है। उसके एक बार के अंगूठे से राजनेताओं को पाँच साल तक अंगूठा दिखाने का अधिकार मिल जाता है।अब जब दागियों को न्यायालय ने अँगूठा दिखाया है,यह बात उनके बिरादर-भाइयों को हजम कैसे हो सकती है ?

हमारी सभी दागियों के प्रति सहानुभूति है।हमेशा की तरह हमें प्रबल उम्मीद है कि इनके दिन फ़िर से बहुरेंगे।हम पशुओं से भी आत्मीय अपील करते हैं कि वे मानवीय-स्वभाव से ऊपर उठकर पशुता का परिचय दें और अपने चारे के एवज में इन सबकी रोजी-रोटी न छीनें। दूसरी अपील सरकार से है कि वह इन ‘बे-चारों’ के लिए कम से कम मनरेगा के जॉब-कार्ड ही बनवा दे !

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

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