वो तो नाम के ही डॉक्टर थे,ये वाले काम के निकले।कड़वी दवा को अच्छे दिनों की पुड़िया में लपेटकर रोगी को चंगा करने जा रहे हैं।पहले वाले डॉक्टर साहब पर आरोप था कि मरीज़ को बचाने के सब नुस्खे उन्हें पता थे पर समय से इलाज करने की कोशिश नहीं की।ऐसे में रोगी की हालत खस्ता तो होनी ही थी।नए वाले डॉक्टर जबसे आए हैं,बस नुस्खे पर नुस्खे दिए जा रहे हैं।रोगी अभी भी ऑपरेशन थियेटर से उन्हें टुकुर-टुकुर निहार रहा है।उसके परिजनों को आस है कि ज़रूर कोई जादुई चमत्कार होगा और रोगी खांस-खखारकर बैठ जायेगा।
बात जब देश की हो तो सारे मायने बदल जाते हैं।जो पहले जनहित की बात करते थे,वो अब देशहित पर आ गए हैं।अच्छे दिनों का आना जहाँ जनहित के लिए आवश्यक था,वहीँ देशहित के लिए उसी जन को कड़वे घूँट पीने से गुरेज कैसा ? सो,वे इस दवा को लगातार घोल रहे हैं।पहले जनहित में खूब दहाड़ते थे अब देशहित में कट्टी साध ली है।एक डॉक्टर को देशसेवक बनने के लिए कितना कुछ बदलना पड़ता है,यह बात वो अब समझ चुके हैं ।देश के लिए कड़े कदम उठाने पड़ते हैं,यह उनके समर्थकों को अभी पता चला है।इसके लिए शाल से साड़ी को मैच करने में भी कोई सांस्कृतिक समस्या आड़े नहीं आती।
फ़िलहाल,शेयर बाज़ार की तेज बयार से मरीज की लू उतारी जा रही है।इस काम में थोड़ा-बहुत ईंधन तो लगेगा ही,इसके लिए पूरी योजना तैयार है।देशहित में जनता को यदि गैस की थोड़ी मार सहनी पड़ती है तो उसके लिए ये अच्छे दिन ही हैं कि उसे कोयला,स्पेक्ट्रम और खदान के बवंडर से हल्की हवा का सामना करना पड़े। इस समय देश बीमार और बेबस निगाहों से हर तरह के घूँट पीने को मजबूर है।हो सकता है कि इस बार राष्ट्रवाद का ज्वर भी पूरी तरह उतर जाय।
कहते हैं कि उम्मीदों से भरा इन्सान सब कुछ सहन कर लेता है,यहाँ तो फिर भी देशहित का प्रश्न है।वे उम्मीदवार से उम्मीदों के दूत बन गए हैं।ऐसे में किसी यमदूत की क्या मजाल कि रोगी के पास फटक जाय !
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