मैंने जबसे सुना है कि राज्यसभा की एक सीट के बदले मिल रहे सौ करोड़ रूपयों पर किसी ने लात मार दी है,उस लात को खोज रहा हूँ।मैं कित्ता अभागा हूँ कि न जेब में दो कौड़ी हैं और न कायदे की लात ही।लात हो तो ऐसी जो सीधे सौ करोड़ पर पड़े।मेरी तुच्छ लात दिन भर म्युनिसिपल्टी की नालियों से टकराती रहती है और शाम तक महज डब्बे-भर कूड़ा जुटा पाती है।सोचिये उनके क्या जलवे होंगे,जिनकी लात करोड़ों-करोड़ स्पर्श करके सही-सलामत अपने मूल स्थान पर लौट आती है।
मुझे जहाँ उस लात पर गर्व और खुशी का अनुभव हो रहा है,वहीँ ‘सौ करोड़’ की हुई मानहानि पर चिन्ता और दुःख भी ।अगर यह बात सौ-करोड़ी फिल्म वालों को पता चल गई तो उन्हें अपनी रेटिंग हज़ार-करोड़ तक बढ़ानी पड़ सकती है।यह सरासर भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन और अपमान भी है।लात की ऐसी हिम्मत कि अपने को खड़ा करने वाले का ही तिरस्कार करे ! लात के इस तरह बढ़ते प्रभाव पर गहन मंथन होना चाहिए अन्यथा भविष्य में लात खाने को लेकर कई नई सम्भावनाएं जन्म ले सकती हैं।जिनके पास सौ करोड़ नहीं होंगे,वे लात खाकर ही मुक्ति पा सकते हैं और जिनके पास इससे ज़्यादा बजट होगा,वे ही लात की जद से बाहर होंगे।
सौ करोड़ पर लात मारना खरीदारों के लिए खुलेआम चेतावनी है।वे अपनी जेब को इस हिसाब से भरकर लाएँ कि बदले में लात नसीब न हो।लातों के भूत बातों से नहीं मानते,ऐसा सुना था पर अब तो करोड़ों रुपयों से भी नहीं मान रहे हैं।वे टिकट पाकर ‘लातत्व’ को भूल सकते हैं,भले ही इसका अनुभव उन्हें सार्वजनिक रूप से हो।कुर्सी पाकर खुद की लात में अपने आप गुरुता आ जाती है,सो इस भारीपन को पाने के लिए सौ-दो-सौ करोड़ क्या चीज़ हैं ! अभी तक आदमी वीआईपी होता था पर अब से वह बजरिये लात जाना जाएगा।जिसकी जितनी टिकाऊ और कीमती लात,उसकी उतनी बड़ी औकात।
उस गौरवशाली लात को बार-बार नमन है जो पल भर में ही करोड़ों रुपयों से ऊँचे तुल गई।इससे सदन की गरिमा और टिकट की अस्मिता की रक्षा की है।करोड़-दो-करोड़ रूपये जेब में लेकर चलने वाले धन्नासेठ अब टिकट पाने के बजाय अपनी कोई कम्पनी खोल लें,जिसमें ‘लात से कैसे बचें’ का बेहतर ढंग से प्रशिक्षण दिया जाय।इससे उनका व्यापार-घाटा तो कम होगा ही,भविष्य में बनने वाले लतखोर भी कुशल और दक्ष हो सकेंगे।ऐसे में उनको भी लाभ होगा,जो लात मारने के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं।फ़िर वे सरेआम लतियाकर पीठ पीछे ‘समर्पित कार्यकर्त्ता’ का प्रमाण-पत्र निर्गत कर सकेंगे,जिससे दोनों पक्ष अधिकतम लाभ उठा पाने में समर्थ होंगे।
सौ करोड़ तो मेरे पास नहीं हैं पर सोच रहा हूँ कि एक बार उस ‘दैवीय-लात’ का प्रहार सह लूँ,ताकि मुझे भी जीने की वजह मिल जाये।टिकट लेने का शौक तो सिनेमा से भी पूरा कर सकता हूँ पर ऐसी दिव्य-लात दुर्लभ है।इस समय मन में विकट अंतर्द्वंद्व मचा हुआ है कि उच्च सदन का टिकट पाकर अपने को धन्य समझूँ या लात खाकर?
मुझे जहाँ उस लात पर गर्व और खुशी का अनुभव हो रहा है,वहीँ ‘सौ करोड़’ की हुई मानहानि पर चिन्ता और दुःख भी ।अगर यह बात सौ-करोड़ी फिल्म वालों को पता चल गई तो उन्हें अपनी रेटिंग हज़ार-करोड़ तक बढ़ानी पड़ सकती है।यह सरासर भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन और अपमान भी है।लात की ऐसी हिम्मत कि अपने को खड़ा करने वाले का ही तिरस्कार करे ! लात के इस तरह बढ़ते प्रभाव पर गहन मंथन होना चाहिए अन्यथा भविष्य में लात खाने को लेकर कई नई सम्भावनाएं जन्म ले सकती हैं।जिनके पास सौ करोड़ नहीं होंगे,वे लात खाकर ही मुक्ति पा सकते हैं और जिनके पास इससे ज़्यादा बजट होगा,वे ही लात की जद से बाहर होंगे।
सौ करोड़ पर लात मारना खरीदारों के लिए खुलेआम चेतावनी है।वे अपनी जेब को इस हिसाब से भरकर लाएँ कि बदले में लात नसीब न हो।लातों के भूत बातों से नहीं मानते,ऐसा सुना था पर अब तो करोड़ों रुपयों से भी नहीं मान रहे हैं।वे टिकट पाकर ‘लातत्व’ को भूल सकते हैं,भले ही इसका अनुभव उन्हें सार्वजनिक रूप से हो।कुर्सी पाकर खुद की लात में अपने आप गुरुता आ जाती है,सो इस भारीपन को पाने के लिए सौ-दो-सौ करोड़ क्या चीज़ हैं ! अभी तक आदमी वीआईपी होता था पर अब से वह बजरिये लात जाना जाएगा।जिसकी जितनी टिकाऊ और कीमती लात,उसकी उतनी बड़ी औकात।
उस गौरवशाली लात को बार-बार नमन है जो पल भर में ही करोड़ों रुपयों से ऊँचे तुल गई।इससे सदन की गरिमा और टिकट की अस्मिता की रक्षा की है।करोड़-दो-करोड़ रूपये जेब में लेकर चलने वाले धन्नासेठ अब टिकट पाने के बजाय अपनी कोई कम्पनी खोल लें,जिसमें ‘लात से कैसे बचें’ का बेहतर ढंग से प्रशिक्षण दिया जाय।इससे उनका व्यापार-घाटा तो कम होगा ही,भविष्य में बनने वाले लतखोर भी कुशल और दक्ष हो सकेंगे।ऐसे में उनको भी लाभ होगा,जो लात मारने के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं।फ़िर वे सरेआम लतियाकर पीठ पीछे ‘समर्पित कार्यकर्त्ता’ का प्रमाण-पत्र निर्गत कर सकेंगे,जिससे दोनों पक्ष अधिकतम लाभ उठा पाने में समर्थ होंगे।
सौ करोड़ तो मेरे पास नहीं हैं पर सोच रहा हूँ कि एक बार उस ‘दैवीय-लात’ का प्रहार सह लूँ,ताकि मुझे भी जीने की वजह मिल जाये।टिकट लेने का शौक तो सिनेमा से भी पूरा कर सकता हूँ पर ऐसी दिव्य-लात दुर्लभ है।इस समय मन में विकट अंतर्द्वंद्व मचा हुआ है कि उच्च सदन का टिकट पाकर अपने को धन्य समझूँ या लात खाकर?
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