वे लेखक हैं पर लोग मानने को तैयार नहीं हैं।उन्होंने लिखने में टनों कागज़ काम पर लगा दिया पर वह फिर से लुगदी बनने को मजबूर है।कोई पढ़ने वाला ही नहीं है।जैसे ही वे किसी लेखक के सम्मानित होने का समाचार पढ़ते हैं,उनके अंदर का साहित्यकार फड़फड़ा उठता है।हर दिन नए संकल्प के साथ वे रचना-कर्म में जुट जाते हैं पर लाइमलाइट में नहीं आ पाते।वे इन दिनों नई जुगत में भिड़े हैं।किसी ने उनके कान में फूँक दिया है कि जब तक वे सम्मानित नहीं हो जाते लेखक नहीं कहलाएंगे।सो आजकल वे किसी सम्मानित करने वाले को ताक रहे हैं।फूल-माला लिए आते हर शख्स पर उन्हें सम्मानकर्ता होने का संदेह होने लगता है।पर मुश्किल है कि अभी किसी को उन पर लेखक होने का संदेह तक नहीं हो पाया।इसलिए वे बेचैन हैं।
लेखक होने का दर्द उनको साल रहा है।लेखक न होते तो कोई बात नहीं,पर होकर भी न होना बड़ा अपमानजनक है।लिखे हुए का सम्मानित होना आवश्यक है,अन्यथा लिखना ही वृथा।इस नाते सम्मानित होना मौलिक अधिकार बनता है।उनका वश चले तो इसे अगले कानून-संशोधन में प्रस्तावित करवा दें।अगर सरकार ऐसा नहीं कर सकती तो लिखने पर ही पाबंदी लगा दे।इससे उन्हें संतोष तो होगा कि लिखने का श्रम व्यर्थ नहीं हुआ।सार्थक लेखन तभी है जब वह सम्मानित होकर लेखक को भी कुछ दे जाय।वे तो बस एक छोटे श्री फल,सस्ते शाल और पान-सुपाड़ी पर ही संतोष कर लेंगे।बंद लिफ़ाफा मिल जाय,भले ही खाली हो,तो वे एकदम से बड़े लेखक बन सकते हैं।ताम्रपत्र की जगह ए-फोर साइज़ की घटिया शीट पर भी वे अपना प्रशस्ति-पत्र छपवाने को बुरा नहीं समझेंगे।इस सादगी और मितव्ययिता से लगे हाथों वे गाँधीवादी लेखक भी बन जायेंगे।
वे बड़े सम्वेदनशील हैं।लेखक को होना भी चाहिए।समाज में सम्मानरहित जीवन उन्हें कतई रास नहीं आ रहा।वे लिखने-पढ़ने के बजाय इसकी जुगत में लगे हैं।कुछ सम्मानित हों,तो प्रेरणा मिले।फिर लेखन भी हो।सम्मानोपरान्त लेखन की अपनी आभा होती है।लेख के बाद कैप्शन में दिया जा सकता है;लेखक फलाँ,फलाँ पुरस्कार से सम्मानित।इससे दूसरे सम्मानकर्ताओं को प्रेरणा मिलेगी।वे भी उनको सम्मानित करने दौड़ पड़ेंगे।सम्मान की फोटो सहित खबर जब सोशल मीडिया और अख़बारों पर छपेगी,वे लहालोट हो जायेंगे।उनकी बिरादरी के दूसरे लोग जितना जल-भुन कर राख होंगे,उनके सम्मान में उत्ती ही तीव्र गति से वृद्धि होगी।वरिष्ठता ऐसे ही आती है।जितने ज्यादा सम्मान के पुलिंदे ग्रहण कर पाएंगे,उत्ते ही वरिष्ठ कहलायेंगे।इसलिए सम्मान पाने पर उनका ज्यादा फोकस है।
वे लिखने से समझौता कर सकते हैं पर सम्मान से नहीं।बचपन में कहीं गलती से पढ़ लिया था,’अकीर्तिं चापि भूतानि,मरणादतिरिच्यते’।अब वही पाठ उन्हें जीने नहीं दे रहा।यश से रहित जीवन मृत्यु से भी अधिक है।यश न होना उनके लिए अपयश है।लेखक होकर कोई आपको न जाने,न सम्माने,ये तो मरने वाली बात है।उनका लेखन अब सम्मान के अभाव में दम तोड़ने की कगार पर है।उनको सम्मान मिले तो लेखन को प्रेरणा मिले।उनका लेखन प्रेरित होगा तो समाज को भी प्रेरणा मिलेगी।सम्मान के बिना यदि वे इस दुनिया से कूच कर गए तो पूरा साहित्यजगत इस हिंसा और अन्याय का जिम्मेदार होगा।इसके पहले कि कोई अनहोनी हो;सभी सरकारी,असरकारी संस्थाओं से निवेदन है कि साहित्य को होने वाली संभावित अपूरणीय क्षति से बचा लें।टैक्स-चोरी और धतकर्मों में संलिप्त संस्थाएं भी लेखक के सम्मान के लिए आगे आ सकती हैं।सम्मान ये सब भेदभाव नहीं देखता,इसलिए वे बस टकटकी लगाये सम्मानित करने वाले की राह देख रहे हैं।
लेखक होने का दर्द उनको साल रहा है।लेखक न होते तो कोई बात नहीं,पर होकर भी न होना बड़ा अपमानजनक है।लिखे हुए का सम्मानित होना आवश्यक है,अन्यथा लिखना ही वृथा।इस नाते सम्मानित होना मौलिक अधिकार बनता है।उनका वश चले तो इसे अगले कानून-संशोधन में प्रस्तावित करवा दें।अगर सरकार ऐसा नहीं कर सकती तो लिखने पर ही पाबंदी लगा दे।इससे उन्हें संतोष तो होगा कि लिखने का श्रम व्यर्थ नहीं हुआ।सार्थक लेखन तभी है जब वह सम्मानित होकर लेखक को भी कुछ दे जाय।वे तो बस एक छोटे श्री फल,सस्ते शाल और पान-सुपाड़ी पर ही संतोष कर लेंगे।बंद लिफ़ाफा मिल जाय,भले ही खाली हो,तो वे एकदम से बड़े लेखक बन सकते हैं।ताम्रपत्र की जगह ए-फोर साइज़ की घटिया शीट पर भी वे अपना प्रशस्ति-पत्र छपवाने को बुरा नहीं समझेंगे।इस सादगी और मितव्ययिता से लगे हाथों वे गाँधीवादी लेखक भी बन जायेंगे।
वे बड़े सम्वेदनशील हैं।लेखक को होना भी चाहिए।समाज में सम्मानरहित जीवन उन्हें कतई रास नहीं आ रहा।वे लिखने-पढ़ने के बजाय इसकी जुगत में लगे हैं।कुछ सम्मानित हों,तो प्रेरणा मिले।फिर लेखन भी हो।सम्मानोपरान्त लेखन की अपनी आभा होती है।लेख के बाद कैप्शन में दिया जा सकता है;लेखक फलाँ,फलाँ पुरस्कार से सम्मानित।इससे दूसरे सम्मानकर्ताओं को प्रेरणा मिलेगी।वे भी उनको सम्मानित करने दौड़ पड़ेंगे।सम्मान की फोटो सहित खबर जब सोशल मीडिया और अख़बारों पर छपेगी,वे लहालोट हो जायेंगे।उनकी बिरादरी के दूसरे लोग जितना जल-भुन कर राख होंगे,उनके सम्मान में उत्ती ही तीव्र गति से वृद्धि होगी।वरिष्ठता ऐसे ही आती है।जितने ज्यादा सम्मान के पुलिंदे ग्रहण कर पाएंगे,उत्ते ही वरिष्ठ कहलायेंगे।इसलिए सम्मान पाने पर उनका ज्यादा फोकस है।
वे लिखने से समझौता कर सकते हैं पर सम्मान से नहीं।बचपन में कहीं गलती से पढ़ लिया था,’अकीर्तिं चापि भूतानि,मरणादतिरिच्यते’।अब वही पाठ उन्हें जीने नहीं दे रहा।यश से रहित जीवन मृत्यु से भी अधिक है।यश न होना उनके लिए अपयश है।लेखक होकर कोई आपको न जाने,न सम्माने,ये तो मरने वाली बात है।उनका लेखन अब सम्मान के अभाव में दम तोड़ने की कगार पर है।उनको सम्मान मिले तो लेखन को प्रेरणा मिले।उनका लेखन प्रेरित होगा तो समाज को भी प्रेरणा मिलेगी।सम्मान के बिना यदि वे इस दुनिया से कूच कर गए तो पूरा साहित्यजगत इस हिंसा और अन्याय का जिम्मेदार होगा।इसके पहले कि कोई अनहोनी हो;सभी सरकारी,असरकारी संस्थाओं से निवेदन है कि साहित्य को होने वाली संभावित अपूरणीय क्षति से बचा लें।टैक्स-चोरी और धतकर्मों में संलिप्त संस्थाएं भी लेखक के सम्मान के लिए आगे आ सकती हैं।सम्मान ये सब भेदभाव नहीं देखता,इसलिए वे बस टकटकी लगाये सम्मानित करने वाले की राह देख रहे हैं।
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