बाहर बड़ी धुंध छाई थी।रजाई छोड़ने की हिम्मत न हो रही थी पर बजरंगी काका ने आज पार्क में बुलाया था,सो बेमन से उठ के चल दिया।पार्क में पहुंचा तो देखा कि काका पूरी तैयारी के साथ आये हुए थे।उनके साथ चार बंदे और थे।मेरा चेहरा मफलर से पूरा ढंका हुआ था,सो वे पहचान नहीं पाए।मुझे देखते ही बोले,’घरवापसी करने आये हो क्या ? कहो तो इन चारों के साथ तुम्हारा भी किरियाकरम कर डालें ?’ इतना सुनते ही सुन्न हो चुकी मेरी देह में पता नहीं कहाँ से ऊर्जा आ गई।मैंने मफलर को थोड़ा परे सरकाते हुए जवाब दिया,’ काका,मैं तो अभी घर से चला आ रहा हूँ।अभी जिन्दा भी हूँ और आप क्रियाकर्म की बात करते हो ?’
बजरंगी काका मेरे करीब आकर फुसफुसाए,’नहीं भाई ! तुम्हें घरवापसी करने की कउनो ज़रूरत नाहीं है।ये तो विधर्मियों के लिए है।तुम तो भरे-पूरे इंसान लगत हौ।ई जो दुसरे धरम मा हमरा माल फँसा पड़ा है,वो ही लाने वास्ते सब करना पड़ रहा है।’मैंने अनजान बनते हुए कड़ाके की सर्दी में भी गरम सवाल दाग़ दिया,’तो क्या अब आपको मंहगाई,भ्रष्टाचार और कालाधन परेशान नहीं कर रहा ? चुनाव के पहले हमने तो यही सब सुना था ?’
बजरंगी काका अब अपनी पर आ गए,’देखो बचुआ ! पुरानी मसल है कि कहने और करने में फर्क होवे है ।हम ठहरे पुरनिया मनई इसलिए पुरानी बात ही हमरे लिए पत्थर की लकीर हवै।वो ही हमारे लाने गीता और रामायन है।हम लोगन ने बहुत बुरा टैम देखा है।अब हमरे अच्छे दिन आये हैं तो काहे न पूरा मजा लियें ? जल्दी ही अपन देश में सनातन धर्म का झंडा लहराएगा और हम विश्व-गुरु बन जइहैं।फिर बाकी देश हमरी ही पूजा-पाठ करैंगे।’
'तो क्या इसीलिए ‘घरवापसी’ की अलख जगाये फिर रहे हो ? फिर तो आप को वनवासी होना पड़ेगा ?मैंने आख़िरी तीर मारते हुए पूछा।काका ने सारी आशंकाओं को खारिज करते हुए कहा,’घरवापसी का मतलब औरों का हमारे साथ समा जाना है.मतलब जइसे समन्दर मा नदी-नाला मिल जात हैं।हम वनवासी थोड़े बनेंगे।माना कि हमरे पूर्वज पेड़न पर उछलत-कूदत रहे पर अब हम पूँछ कहाँ ढूँढ़त फिरेंगे ?असल बात तो या है कि जो हमरे धर्म को मानत हैं उनको बेकारी,भूख और छुआछूत से जिल्लत नाहीं होत है।बस सारी गड़बड़ उनके अधरम होने में ही है।इसलिये पूरे देश में अब हमरा ही झंडा और डंडा चलेगा।‘
इतना सुनते ही मुझे अपनी गरम रजाई का ख्याल आया और मैं घर की ओर चल पड़ा।काका अपने साथ लाए हुए माल की वापसी में व्यस्त हो गए।
बजरंगी काका मेरे करीब आकर फुसफुसाए,’नहीं भाई ! तुम्हें घरवापसी करने की कउनो ज़रूरत नाहीं है।ये तो विधर्मियों के लिए है।तुम तो भरे-पूरे इंसान लगत हौ।ई जो दुसरे धरम मा हमरा माल फँसा पड़ा है,वो ही लाने वास्ते सब करना पड़ रहा है।’मैंने अनजान बनते हुए कड़ाके की सर्दी में भी गरम सवाल दाग़ दिया,’तो क्या अब आपको मंहगाई,भ्रष्टाचार और कालाधन परेशान नहीं कर रहा ? चुनाव के पहले हमने तो यही सब सुना था ?’
बजरंगी काका अब अपनी पर आ गए,’देखो बचुआ ! पुरानी मसल है कि कहने और करने में फर्क होवे है ।हम ठहरे पुरनिया मनई इसलिए पुरानी बात ही हमरे लिए पत्थर की लकीर हवै।वो ही हमारे लाने गीता और रामायन है।हम लोगन ने बहुत बुरा टैम देखा है।अब हमरे अच्छे दिन आये हैं तो काहे न पूरा मजा लियें ? जल्दी ही अपन देश में सनातन धर्म का झंडा लहराएगा और हम विश्व-गुरु बन जइहैं।फिर बाकी देश हमरी ही पूजा-पाठ करैंगे।’
'तो क्या इसीलिए ‘घरवापसी’ की अलख जगाये फिर रहे हो ? फिर तो आप को वनवासी होना पड़ेगा ?मैंने आख़िरी तीर मारते हुए पूछा।काका ने सारी आशंकाओं को खारिज करते हुए कहा,’घरवापसी का मतलब औरों का हमारे साथ समा जाना है.मतलब जइसे समन्दर मा नदी-नाला मिल जात हैं।हम वनवासी थोड़े बनेंगे।माना कि हमरे पूर्वज पेड़न पर उछलत-कूदत रहे पर अब हम पूँछ कहाँ ढूँढ़त फिरेंगे ?असल बात तो या है कि जो हमरे धर्म को मानत हैं उनको बेकारी,भूख और छुआछूत से जिल्लत नाहीं होत है।बस सारी गड़बड़ उनके अधरम होने में ही है।इसलिये पूरे देश में अब हमरा ही झंडा और डंडा चलेगा।‘
इतना सुनते ही मुझे अपनी गरम रजाई का ख्याल आया और मैं घर की ओर चल पड़ा।काका अपने साथ लाए हुए माल की वापसी में व्यस्त हो गए।
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