सामने आधी बाल्टी पानी था और मुझे बड़ी देर से ललकार रहा था।पिछले आठ दिनों से सफाई के बारे में श्रीमती जी की नसीहतें सुनने के बाद इतना हौसला जुटा पाया था कि उसे भर नज़र देख सकूँ।स्नानघर तक मैं ऐसे पहुँचा था,जैसे कसाई बकरे को जिबह के लिए पकड़कर ले जाता है।मामला केवल नहाने या सफाई भर का होता तो कोई न कोई तोड़ मैं निकाल ही लेता पर बात यहाँ तक पहुँच गई थी कि हमारे न नहाने से यदि कोई संक्रामक बीमारी फ़ैली तो उसका सीधा-सीधा जिम्मेदार मैं ही होऊँगा।यानी यह तय था कि पाला गिरे या बर्फ़,हमें अपनी क़ुर्बानी तो देनी ही पड़ेगी।
मैंने बाल्टी की ओर से नज़रें हटाकर एक बार फिर बाहर की ओर दौड़ाई।पर कोहरे की सफ़ेद चादर ने नज़र को वहीँ ठिठका दिया।बाहर की धुंध के बजाय मुझे बाल्टी के अंदर का खुलापन ज्यादा अच्छा लगा।इससे मुझे जो थोड़ी हिम्मत मिली,उसे साथ लिए मैं बाथरूम के अंदर कूद पड़ा।मैंने पानी से अध-भरा डिब्बा पहले अपनी हिम्मत पर ही उड़ेला,हिम्मत वहीँ जम गई।इतने में बाहर से श्रीमती जी की आवाज आई कि साबुन वहीँ रखा है,उसे भी आजमा लेना।इतना सुनते ही मेरी हिम्मत को थोड़ी गर्माहट मिली और मैंने झट से पानी का दूसरा डिब्बा साबुन पर न्यौछावर कर दिया।बचे हुए पानी में मुझे अपने अन्तःवस्त्र भी भिगोने थे,इसलिए मैंने इसका भी ख्याल रखा।एक भले समाजवादी की तरह मैंने यह कर्म पूरे मनोयोग से किया।जब बाथरूम में मेरे नहाने के सारे साक्ष्य मौजूद हो गए,मैं ‘अच्छे दिनों’ के रैपर में लिपटकर बाहर आ गया।
बाथरूम के बाहर जश्न का माहौल था।श्रीमती जी ने गोभी के गरम पकौड़ों के साथ गिलास भर चाय हमारे सामने पेश कर दी।बच्चे देशभक्ति के गाने गा रहे थे।मैं सोचने लगा कि हमारे बाथरूम जाते ही ऐसा क्या हो गया है ? देश में हमारे नहाने से भी ज्यादा ज़रूरी और काम हैं।ऐसी ठण्ड में कश्मीर में बाप-बेटी या बाप-बेटे की सरकार नहीं बन पा रही है,यह चिंता का विषय होना चाहिए पर श्रीमती जी को राजनीति से कोई दिलचस्पी नहीं।उन्हें लगता है कि सरकार बनाने से कहीं अधिक कठिन काम पकौड़े तलना है।पकौड़े बनाने के लिए हर बार एक ही फार्मूला मेनटेन करना पड़ता है जबकि सरकार तो कैसे भी बन जाती है।उसके बनने के सारे विकल्प खुले रहते हैं।काश,मेरे नहाने को लेकर भी सारे विकल्प खुले रहते पर लगता है कि इस समय नहाना ही सबसे बड़ी राष्ट्रीय समस्या है ।
मैंने बाल्टी की ओर से नज़रें हटाकर एक बार फिर बाहर की ओर दौड़ाई।पर कोहरे की सफ़ेद चादर ने नज़र को वहीँ ठिठका दिया।बाहर की धुंध के बजाय मुझे बाल्टी के अंदर का खुलापन ज्यादा अच्छा लगा।इससे मुझे जो थोड़ी हिम्मत मिली,उसे साथ लिए मैं बाथरूम के अंदर कूद पड़ा।मैंने पानी से अध-भरा डिब्बा पहले अपनी हिम्मत पर ही उड़ेला,हिम्मत वहीँ जम गई।इतने में बाहर से श्रीमती जी की आवाज आई कि साबुन वहीँ रखा है,उसे भी आजमा लेना।इतना सुनते ही मेरी हिम्मत को थोड़ी गर्माहट मिली और मैंने झट से पानी का दूसरा डिब्बा साबुन पर न्यौछावर कर दिया।बचे हुए पानी में मुझे अपने अन्तःवस्त्र भी भिगोने थे,इसलिए मैंने इसका भी ख्याल रखा।एक भले समाजवादी की तरह मैंने यह कर्म पूरे मनोयोग से किया।जब बाथरूम में मेरे नहाने के सारे साक्ष्य मौजूद हो गए,मैं ‘अच्छे दिनों’ के रैपर में लिपटकर बाहर आ गया।
बाथरूम के बाहर जश्न का माहौल था।श्रीमती जी ने गोभी के गरम पकौड़ों के साथ गिलास भर चाय हमारे सामने पेश कर दी।बच्चे देशभक्ति के गाने गा रहे थे।मैं सोचने लगा कि हमारे बाथरूम जाते ही ऐसा क्या हो गया है ? देश में हमारे नहाने से भी ज्यादा ज़रूरी और काम हैं।ऐसी ठण्ड में कश्मीर में बाप-बेटी या बाप-बेटे की सरकार नहीं बन पा रही है,यह चिंता का विषय होना चाहिए पर श्रीमती जी को राजनीति से कोई दिलचस्पी नहीं।उन्हें लगता है कि सरकार बनाने से कहीं अधिक कठिन काम पकौड़े तलना है।पकौड़े बनाने के लिए हर बार एक ही फार्मूला मेनटेन करना पड़ता है जबकि सरकार तो कैसे भी बन जाती है।उसके बनने के सारे विकल्प खुले रहते हैं।काश,मेरे नहाने को लेकर भी सारे विकल्प खुले रहते पर लगता है कि इस समय नहाना ही सबसे बड़ी राष्ट्रीय समस्या है ।
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