बुधवार, 6 मार्च 2013

मिशन,कमीशन और आम आदमी !



०६/०३/२०१३ को नैशनल दुनिया व जनसंदेश में !







सुबह-सुबह मंदिर के चबूतरे पर जैसे ही कदम रखा कि वहाँ पर पहले से ही खड़े दो लोगों ने मुझे आगे बढ़ने से रोक दिया।मैंने इसका कारण जानना चाहा तो दोनों ने एक साथ जवाब दिया कि उनके रहते मंदिर का प्रसाद कोई और उड़ा ले जाए,यह संभव नहीं है।मैंने कहा ,भई,मैं तो आम आदमी हूँ और मंदिर के प्रसाद पर मेरा भी हक है पर वे दोनों अपनी बात पर अड़ गए । मुझे जबरन रुकना पड़ा तो सोचा कि अब इस बात का पता लगना ज़रूरी है कि मुझे मंदिर का प्रसाद न मिलने के पीछे इनका क्या उद्देश्य है ?
मंदिर के बाहर ही एक बेंच पर हम उन दोनों के साथ बैठ गए।एक मेरे दायें बैठा और दूसरा मेरे मध्य में ;मैं बिलकुल किनारे था।मुझे गुस्सा आ रहा था कि उन दोनों ने मुझे मौलिक अधिकार से वंचित किया है।सबसे पहले मैंने दायीं तरफ़ वाले बंदे से पूछा कि वह  कौन है और मंदिर में प्रसाद लेने से उसका क्या नुकसान हो जायेगा ?

अपने भगवे पट्टे को लहराते हुए वह बन्दा बोला,’मैं मिशन हूँ और मेरा एकमात्र मिशन यही है कि इस बार मंदिर का ताला जब खुले तो सारा प्रसाद मैं ही चखूँ।इसके लिए मैंने लंबा इंतज़ार किया है और राम की कृपा से वह दिन अब आ गया है।तुम जैसे आम आदमी बीच में अड़ंगा न डालें,तो मेरा बहुप्रतीक्षित मिशन जल्द पूरा हो जायेगाऔर तुम कौन हो,क्या चाहते हो ?’ अब मैंने मध्य में बैठे हुए बंदे से भी यही सवाल किया।

वह बंदा बोला ,’मुझे सब लोग कमीशन के नाम से जानते हैं,इसलिए मैंने भी अब यही नाम धर लिया है।दरअसल यह हमारा पुश्तैनी धंधा है और हम इस काम में माहिर हैं।पिछले साठ-पैंसठ सालों से हम मंदिर की सेवा करते चले आ रहे हैं इसलिए प्रसाद पर बुनियादी हक हमारा ही बनता है।ये मिशन वाले नासमझ हैं।हर बार सुबह की आरती के वक्त मंदिर के चक्कर लगाने लगते हैं पर मंदिर के भक्तगण इन्हें कोई भाव नहीं देते।ये भगवान का नाम तो लेते हैं पर नज़र केवल प्रसाद पर रहती है,इसलिए अब तक इनका मिशन अधूरा है।

अब वार्ताकार की मेरी हैसियत छिन गई थी।मिशन और कमीशन दोनों आपस में ही उलझने लगे थे।मैं आम आदमी की तरह केवल श्रोता भर रह गया था।मिशन जी ने कमीशन जी की पोल खोलते हुए कहा,’तुमने सारा प्रसाद अपने परिवार में ही बाँट लिया है।काफ़ी मात्रा में तुमने इस प्रसाद की सप्लाई बाहर भी की है।अगर हमने इस मंदिर को ही बचाने के लिए इसका एक खम्भा गिराया है तो तुम तो दीमक की तरह सारे मंदिर में चिपट गए हो।अब हम प्रसाद बंटने का इंतज़ार नहीं करने वाले हैं,बल्कि पूरा हड़प लेंगे,यही हमारा मिशन है।

कमीशन जी बिलकुल शांत बैठे रहे।मिशन जी की बातों से बिना उत्तेजित हुए कहने लगे,’बेटा,यह बहुत बड़ा मंदिर है।किसी छोटे-मोटे मंदिर के पुजारी बनकर यह दंभ पाले बैठे हो कि बड़े मंदिर को भी संभाल लोगे,तो ये तुम्हारी भूल है।तुम्हारा जो भी मिशन है,कमीशन से ही बना है।हमने हमेशा कमीशन खाया और बिठाया है,इसलिए इस क्षेत्र के सबसे बड़े तजुर्बेकार हमीं है।अबकी बार तुम्हारे इस मिशन पर ही कमीशन बिठा दूंगा,फ़िर मंदिर के प्रांगण में नहीं,कच्छ के रण में ही नज़र आओगे।

बहस बढ़ती देखकर मैंने प्रसाद खाने का जोखिम लेना उचित नहीं समझा और वहाँ से चला आया।


 

मिर्ची-पाउडर का मंदिर के प्रसाद में बदलना !

जनता की आँखों में धूल झोंकने के अभ्यस्त रहे लोग यदि अपने लोगों की आँखों में मिर्च झोंकते हैं तो यह महज तकनीकी मसला भर है। इस पर नैतिकता का मुलम्मा चढ़ाकर बड़े-बड़े अश्रु बहाना निहायत पारंपरिक और स्थायी कर्म है,जो अब बंद होना चाहिए। पिछले कई वर्षों से ऐसे कर्णधार,जो धूल और कोयला झोंकने में निपुण हैं ,निरंतर अपनी उपयोगिता सिद्ध कर चुके हैं ।साथ ही,वे दल-बल सहित सदन में स्थायी आसन जमाकर बैठ गए हैं। ऐसे में अगर एकाध मिर्ची झोंकने वाला भी सदन में एंट्री मार लेता है तो हमारे दिल में अचानक नैतिकता की घंटियाँ क्यों बजने लगती हैं ? यह तो लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का एक छोटा-सा अंग है ,जिसमें एक पाकेटमार या चेन-स्नैचर की तरह एक मिर्चीमार और चक्कूबाज को अपना हुनर दिखाने का मौका मिल जाता है। इसको सकारात्मक नजरिये से देखा जाये तो यह बाहुबलियों और माफिया डॉन के बीच अदने से लफंगे की हल्की-सी घुसपैठ भर है।

हमारी संसद एक पवित्र मंदिर की तरह है और इसमें पुजारी बनकर प्रवेश करने वाले देवताओं की जगह विराजमान हैं। यह सब कुछ नितांत लोकतान्त्रिक तरीके से हुआ है,इसलिए इसमें कुछ भी गलत नहीं है। मंदिर में देवताओं और पुजारियों के विशेषाधिकार होते हैं,भक्तों के नहीं। इसलिए वे वहाँ भरतनाट्यम करें,मल्ल-युद्ध करें या माइक उखाड़ें,सब उनकी नित्यलीलाओं में शुमार माना जाता है। भक्ति से ओत-प्रोत भोली जनता को क्या चाहिए ?। बस,उसे समय-समय पर सब्सिडी के रूप में प्रसाद मिल जाता है और वह फिर से अगली लीला देखने की आतुरता से प्रतीक्षा करने लगती है। इसलिए मंदिर में होने वाले  पूजा-पाठ पर सड़क से उँगली उठाना अनैतिक तो है ही,बेहद असंवैधानिक भी है। मन्दिर के अंदर के विषय पर अंदर के लोग ही अंतिम निर्णय ले सकते हैं। यह उन पर निर्भर है कि मन्दिर के अंदर वे गुलाब-जल का छिड़काव चाहते हैं या मिर्ची-पाउड
हमें अपने युग के प्रभुओं और परमेश्वरों पर पूर्ण आस्था है। हम किसी आम आदमी को पूरी व्यवस्था पर उँगली उठाने और सनातन काल से चली आ रही परम्परा को ठेंगा दिखाने नहीं दे सकते। आम आदमी हमेशा से भक्त रहा है और बाय डिफॉल्ट बना रहेगा। मन्दिर में किया गया स्प्रे हमें आगामी भविष्य के प्रति पूरी तरह आश्वस्त करता है कि इसके इर्द-गिर्द मक्खी-मच्छरों को टिकने नहीं दिया जायेगा। सदन की पवित्रता बरकरार रहे इसके लिए जल्द ही देवता बने पुजारियों की एक समिति गठित की जाएगी,जिससे दिक्-भ्रमित भक्तों में पुनः विश्वास का संचार किया जा सके ! अब इसके बाद
संतोष त्रिवेदी

 

जे 3/78 ,पहली मंजिल,

खिड़की एक्स.,मालवीयनगर

नई दिल्ली-110017

 



9818010808

 



 

मिर्ची-पाउडर का मंदिर के प्रसाद में बदलना !

जनता की आँखों में धूल झोंकने के अभ्यस्त रहे लोग यदि अपने लोगों की आँखों में मिर्च झोंकते हैं तो यह महज तकनीकी मसला भर है। इस पर नैतिकता का मुलम्मा चढ़ाकर बड़े-बड़े अश्रु बहाना निहायत पारंपरिक और स्थायी कर्म है,जो अब बंद होना चाहिए। पिछले कई वर्षों से ऐसे कर्णधार,जो धूल और कोयला झोंकने में निपुण हैं ,निरंतर अपनी उपयोगिता सिद्ध कर चुके हैं ।साथ ही,वे दल-बल सहित सदन में स्थायी आसन जमाकर बैठ गए हैं। ऐसे में अगर एकाध मिर्ची झोंकने वाला भी सदन में एंट्री मार लेता है तो हमारे दिल में अचानक नैतिकता की घंटियाँ क्यों बजने लगती हैं ? यह तो लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का एक छोटा-सा अंग है ,जिसमें एक पाकेटमार या चेन-स्नैचर की तरह एक मिर्चीमार और चक्कूबाज को अपना हुनर दिखाने का मौका मिल जाता है। इसको सकारात्मक नजरिये से देखा जाये तो यह बाहुबलियों और माफिया डॉन के बीच अदने से लफंगे की हल्की-सी घुसपैठ भर है।

हमारी संसद एक पवित्र मंदिर की तरह है और इसमें पुजारी बनकर प्रवेश करने वाले देवताओं की जगह विराजमान हैं। यह सब कुछ नितांत लोकतान्त्रिक तरीके से हुआ है,इसलिए इसमें कुछ भी गलत नहीं है। मंदिर में देवताओं और पुजारियों के विशेषाधिकार होते हैं,भक्तों के नहीं। इसलिए वे वहाँ भरतनाट्यम करें,मल्ल-युद्ध करें या माइक उखाड़ें,सब उनकी नित्यलीलाओं में शुमार माना जाता है। भक्ति से ओत-प्रोत भोली जनता को क्या चाहिए ?। बस,उसे समय-समय पर सब्सिडी के रूप में प्रसाद मिल जाता है और वह फिर से अगली लीला देखने की आतुरता से प्रतीक्षा करने लगती है। इसलिए मंदिर में होने वाले  पूजा-पाठ पर सड़क से उँगली उठाना अनैतिक तो है ही,बेहद असंवैधानिक भी है। मन्दिर के अंदर के विषय पर अंदर के लोग ही अंतिम निर्णय ले सकते हैं। यह उन पर निर्भर है कि मन्दिर के अंदर वे गुलाब-जल का छिड़काव चाहते हैं या मिर्ची-पाउडर का !

हमें अपने युग के प्रभुओं और परमेश्वरों पर पूर्ण आस्था है। हम किसी आम आदमी को पूरी व्यवस्था पर उँगली उठाने और सनातन काल से चली आ रही परम्परा को ठेंगा दिखाने नहीं दे सकते। आम आदमी हमेशा से भक्त रहा है और बाय डिफॉल्ट बना रहेगा। मन्दिर में किया गया स्प्रे हमें आगामी भविष्य के प्रति पूरी तरह आश्वस्त करता है कि इसके इर्द-गिर्द मक्खी-मच्छरों को टिकने नहीं दिया जायेगा। सदन की पवित्रता बरकरार रहे इसके लिए जल्द ही देवता बने पुजारियों की एक समिति गठित की जाएगी,जिससे दिक्-भ्रमित भक्तों में पुनः विश्वास का संचार किया जा सके ! अब इसके बाद भी किसी को मिर्ची लगे तो कोई क्या करे ?

 

संतोष त्रिवेदी

 

जे 3/78 ,पहली मंजिल,

खिड़की एक्स.,मालवीयनगर

नई दिल्ली-110017

 



9818010808

 




 

मिर्ची-पाउडर का मंदिर के प्रसाद में बदलना !

जनता की आँखों में धूल झोंकने के अभ्यस्त रहे लोग यदि अपने लोगों की आँखों में मिर्च झोंकते हैं तो यह महज तकनीकी मसला भर है। इस पर नैतिकता का मुलम्मा चढ़ाकर बड़े-बड़े अश्रु बहाना निहायत पारंपरिक और स्थायी कर्म है,जो अब बंद होना चाहिए। पिछले कई वर्षों से ऐसे कर्णधार,जो धूल और कोयला झोंकने में निपुण हैं ,निरंतर अपनी उपयोगिता सिद्ध कर चुके हैं ।साथ ही,वे दल-बल सहित सदन में स्थायी आसन जमाकर बैठ गए हैं। ऐसे में अगर एकाध मिर्ची झोंकने वाला भी सदन में एंट्री मार लेता है तो हमारे दिल में अचानक नैतिकता की घंटियाँ क्यों बजने लगती हैं ? यह तो लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का एक छोटा-सा अंग है ,जिसमें एक पाकेटमार या चेन-स्नैचर की तरह एक मिर्चीमार और चक्कूबाज को अपना हुनर दिखाने का मौका मिल जाता है। इसको सकारात्मक नजरिये से देखा जाये तो यह बाहुबलियों और माफिया डॉन के बीच अदने से लफंगे की हल्की-सी घुसपैठ भर है।

हमारी संसद एक पवित्र मंदिर की तरह है और इसमें पुजारी बनकर प्रवेश करने वाले देवताओं की जगह विराजमान हैं। यह सब कुछ नितांत लोकतान्त्रिक तरीके से हुआ है,इसलिए इसमें कुछ भी गलत नहीं है। मंदिर में देवताओं और पुजारियों के विशेषाधिकार होते हैं,भक्तों के नहीं। इसलिए वे वहाँ भरतनाट्यम करें,मल्ल-युद्ध करें या माइक उखाड़ें,सब उनकी नित्यलीलाओं में शुमार माना जाता है। भक्ति से ओत-प्रोत भोली जनता को क्या चाहिए ?। बस,उसे समय-समय पर सब्सिडी के रूप में प्रसाद मिल जाता है और वह फिर से अगली लीला देखने की आतुरता से प्रतीक्षा करने लगती है। इसलिए मंदिर में होने वाले  पूजा-पाठ पर सड़क से उँगली उठाना अनैतिक तो है ही,बेहद असंवैधानिक भी है। मन्दिर के अंदर के विषय पर अंदर के लोग ही अंतिम निर्णय ले सकते हैं। यह उन पर निर्भर है कि मन्दिर के अंदर वे गुलाब-जल का छिड़काव चाहते हैं या मिर्ची-पाउडर का !

हमें अपने युग के प्रभुओं और परमेश्वरों पर पूर्ण आस्था है। हम किसी आम आदमी को पूरी व्यवस्था पर उँगली उठाने और सनातन काल से चली आ रही परम्परा को ठेंगा दिखाने नहीं दे सकते। आम आदमी हमेशा से भक्त रहा है और बाय डिफॉल्ट बना रहेगा। मन्दिर में किया गया स्प्रे हमें आगामी भविष्य के प्रति पूरी तरह आश्वस्त करता है कि इसके इर्द-गिर्द मक्खी-मच्छरों को टिकने नहीं दिया जायेगा। सदन की पवित्रता बरकरार रहे इसके लिए जल्द ही देवता बने पुजारियों की एक समिति गठित की जाएगी,जिससे दिक्-भ्रमित भक्तों में पुनः विश्वास का संचार किया जा सके ! अब इसके बाद भी किसी को मिर्ची लगे तो कोई क्या करे ?

 

संतोष त्रिवेदी

 

जे 3/78 ,पहली मंजिल,

खिड़की एक्स.,मालवीयनगर

नई दिल्ली-110017

 



9818010808

 

 


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