मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

बुढ़ापे में फगुनाहट !

 
जबसे हमारे शरीर में बुढ़ापे ने दस्तक दी है,जीवन में किसी प्रकार का रस नहीं दिखता है।मात्र फागुन ऐसा महीना है,जिसके आने की आहट से ही बूढ़ी और मुरझाई नसों में गजब का रक्त-संचरण होने लगता है।इसके आगमन से मांसल-त्वचा से रहित हड्डियाँ एकाएक आत्म-निर्भर हो उठती हैं।पूरे साल भर की प्रतीक्षा के बाद मन में ऐसी कसमसाहट होने लगती है जिसको दबा पाना अशक्त काया के लिए बड़ा कठिन होता है ।मन में न जाने कितने मौलिक और गुलाबी विचार आने लगते हैं ?क्या यह सब फागुन का असर है या हमारी शारीरिक संरचना में बदलाव के महत्वपूर्ण संकेत ?

फागुन हमेशा से हमें अपना समझता रहा है।इसके आने की खबर से ही मौसम बिलकुल हमारे अनुकूल बन जाता है।फागुन में पता नहीं क्या है कि ये जब आता है,अंग-अंग में,पोर-पोर में, नई तरंग पैदा कर देता है।फागुन के इस काम में हवा खूब सहयोग करती है।वह फागुन के संग जब चलती है,मौसम में क़यामत-सी आ जाती है।हमारे सूखे शरीर पर यह ऐसी झुरझुरी पैदा कर देती है कि ग्यारह महीने से संत-प्रवृत्ति वाला मन डांवाडोल होने लगता है।दिल के ऊपरी भाग में अनायास धड़कन बढ़ जाती है,साथ ही साथ हाथ-पैरों में जादुई ताकत का अहसास होने लगता है।

फागुन की हवा का सबसे बड़ा असर आँखों पर पड़ता है और इसका सबसे अधिक खामियाजा यही भोगती हैं।जब भी कोई नवयौवना आँखों के झीने पर्दों से टकराती है,इनकी ज्योति अप्रत्याशित रूप से बढ़ जाती है।रति और अनंग की कल्पना करके हमें असीम सुख की प्राप्ति होती है और हम नई कल्पनाओं में लहालोट होने लगते हैं।अगर सुंदरी परिचित हुई तो यह सुख दूना हो जाता है।जिन सुंदरियों से कभी बात करने की हिम्मत नहीं हुई,हम उनको अपने प्रेम-निवेदन से स्वागत करने को आतुर हो उठते हैं।

इस फागुन की सबसे बड़ी सहेली होली है।इसके शुरुआती दिन बड़े मादक होते हैं।छेड़छाड़ और प्रेम-प्रस्ताव के लिए सबसे कम जोखिम वाले यही दिन माने जाते हैं।जिन स्वप्न-सुंदरियों को दूर से देखकर हम साल भर केवल आहें भरते रहते हैं,इन दिनों उनके कोमल गालों पर अबीर-गुलाल मलने का बहाना हमें आसानी से हासिल हो जाता है।यह समय इतना मादक होता है कि इसकी बानगी खेत-खलिहान तक देखी जा सकती है।फगुनाहट आते ही सरसों और गेहूं को सरे-आम रति-प्रसंग करते हुए पकड़ा जा सकता है।फागुनी-हवा के मदमस्त झोंके से सयानी सरसों पके हुए गेहूं पर झुक जाती है।इस प्रयास में कई बार वह मुँह के बल (बाली सहित) ज़मीन पर आ जाता है,पर उफ़ नहीं करता ।इस क्रिया को देखकर पड़ोसी चना जल-भुन कर ऐंठ जाता है।अपने छोटे कद के कारण वह ऐसे प्रसंग का हिस्सा नहीं बन पाता,बस आहें भरकर रह जाता है।

फागुन में होली का असर मानव से लेकर प्रकृति तक समभाव से होता है।फागुनी-हवा जहाँ हममें अतिरिक्त ऊर्जा का संचार कर देती है,वहीँ पेड़-पौधों को भी पका देती है।यह हवा खासकर आम के वृक्ष पर तुलनात्मक रूप से अधिक मेहरबान होती है।यह ठीक वैसे ही होता है जैसे मनुष्यों में वह बुजुर्गों पर असर करती है।फागुनी-हवा आम के पत्तों के रस में इतना घुलमिल जाती है कि फागुन के जाते ही वे निचुड़कर टपकने लगते हैं।इसके थोड़े दिन बाद ही उनमें नया यौवन आ जाता है और वे बौराने लगते हैं।मनुष्यों के बारे में अभी तक ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला है क्योंकि इनका पतझड़ और बौराना सार्वजनिक रूप से देखा नहीं गया है।

फागुन कुछ रिश्तों को उनके उच्च स्तर पर पहुँचाने के लिए विशेष रूप से जाना जाता है।भाभी,बुआ और साली के रिश्ते बड़े आकर्षक होते हैं और इन दिनों इनमें और निखार आ जाता है।इन सभी रिश्तों में साली का रिश्ता बिलकुल फागुनी सांचे में फिट बैठता है।जीजा-साली अपने दबे हुए अरमानों को फागुन के लिए बचाकर रखते हैं और होली में पिचकारी के रंगों के साथ पूरी तन्मयता से उड़ेल देते हैं।सबसे बड़ी बात यह भी कि यह सब खुले-आम होता है और किसी को नागवार नहीं गुजरता ।पाहुन को परमानन्द की अनुभूति तब होती है जब वह अपने खुरदुरे हाथों से प्यारी साली के कोमल कपोलों को गुलाल से मसलता है।इस मामले में हम भाग्यहीन निकले,जो हमारी कोई साली न हुई।ऐसे में हम फागुन के द्वारा प्रदत्त अन्य सुविधाओं का लाभ उठाने को मजबूर होते हैं।इस तरह फागुन में रस लेने से कोई वंचित नहीं रहता।हमारे बूढ़े होते शरीर के लिए तो यह एक टॉनिक का काम करता है।शरीर तब और फड़कने लगता है,जब ढोल की थाप के बीच फाग की धुन सुनाई देती है।ऐसे फागुन का हम तो पूरे दिल से स्वागत करते हैं।

 

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