गुरुवार, 16 जनवरी 2014

हम जिम्मेदारी को तैयार हैं !

जनसंदेश और हरिभूमि में 16/01/2014 को।
बचपन से ही मैं जिम्मेदारी उठाने को लेकर तत्पर रहा हूँ,पर कभी इस लायक किसी ने समझा ही नहीं।घर में कोई भी काम मेरी जिम्मेदारी पर नहीं छोड़ा गया।पता नहीं घरवालों को इस बात का इल्हाम  कैसे हुआ कि कोई भी गम्भीर काम मेरे भरोसे नहीं हो सकता।मेरे बारे में उनका यह भरोसा अभी तक बना हुआ है।इस बीच देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी के युवा नेता ने बड़ी जोर से उचारा है कि पार्टी उनको जो भी जिम्मेदारी देगी ,वे निभाने को तैयार हैं,बशर्ते वह जिम्मेदारी देश से सम्बन्धित हो।मेरी बात को मेरे परिजनों ने कभी सुनने की कोशिश नहीं की,पर युवराज की बात उनकी पार्टी के लिए सूत्र-वाक्य है,पहला एजेंडा है।इसलिए पार्टी में इस बात का उत्सव है कि उनके युवराज अब दूध-पीते बच्चे नहीं रहे,जिम्मेदार हो गए हैं।यह और ख़ुशी की बात है कि जिम्मेदारी का यह भाव ठीक चुनावों से पहले आया है।

काम सभी होते हैं,ज़रूरी और गैर ज़रूरी ;पर जब देश सेवा की बात हो,तो यह बड़ी जिम्मेदारी का काम हो जाता है।देश सेवा आज़ादी से पहले भी लोग किया करते थे।तब कोई किसी को जिम्मेदारी नहीं देता था।लोग चुपचाप अपना काम करते थे और ज़रूरत पड़ने पर जिम्मेदारी भी लेते थे।यानी,जिम्मेदारी का भाव तब भी था लेकिन उसे ओढ़ने की औपचारिकता नहीं थी।तब देश सेवा का काम औपचारिकता का नहीं था,इसलिए जिम्मेदारी भी औपचारिक नहीं थी।तब के नेता अपने हर काम को किसी से बताते नहीं थे।इस नाते, आज के नेता अधिक लोकतान्त्रिक हैं।यह उनकी जिम्मेदारी है कि वे देश सेवा के लिए अपने को प्रस्तुत करें।

देश की जिम्मेदारी लेने के मामले में हमारे यहाँ बहुत बड़ी प्रतियोगिता है।कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता है।यहाँ तक कि एक पार्टी में जो आज सबसे बड़े जिम्मेदार बनकर उभरे हैं,उन्होंने अपने ही बुजुर्ग को देश-सेवा की जिम्मेदारी से ज़बरन मुक्त कर दिया है।यह अलग बात है कि वे राजधर्म की अपनी जिम्मेदारी से हमेशा बचते रहे हैं।पर देश-सेवा इस सबसे ऊपर है।उसकी जिम्मेदारी लेने के लिए यदि किसी नचनिये के साथ पतंग भी उड़ाना पड़े तो कोई उज्र नहीं।जिम्मेदारी का ज़ज्बा होता ही ऐसा है कि राष्ट्रभक्त व्यक्ति देश-सेवा करने के लिए कुलबुला उठता है।यह कुलबुलाहट इतनी तीव्र होती है कि इसके लिए तीसरा,चौथा मोर्चा भी बनाना पड़े तो लोग तैयार बैठे हैं।

कुछ लोगों को ठंडी में भी गर्मी का अहसास होता है।इसकी जिम्मेदारी वे अपने ऊपर नहीं लेते क्योंकि उन्हें लगता है कि यह जिम्मेदारी जनता की है।जब जनता ने उन्हें एक बार जिम्मेदारी सौंप दी है तो फिर वे कहाँ से जिम्मेदार हुए ? भारी ठण्ड में भी महोत्सव और सैर-सपाटे के लिए समय निकाल लेना कम जिमेदारी का काम है ? जो लोग यह बात नहीं जानते,वे गैर-जिम्मेदार हैं।हमें तो खुश होना चाहिए कि देश-सेवा जैसे नीरस काम की जिम्मेदारी उठाने के लिए लोग चौतरफा तैयार हैं।अब इस काम में ख़ास ही नहीं आम आदमी भी जुट गया है,इसलिए हमें अपने लोकतंत्र के प्रति पूर्ण आश्वस्ति है।भले ही हम कभी कोई जिम्मेदारी न निभा पाए हों,पर अब इन आँखों से जिम्मेदारी को निभते हुए तो देख ही सकते हैं ।

©संतोष त्रिवेदी

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

उत्तरदायित्य कभी दिया जाता है, तो कभी लिया जाता है।

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