शाम को ढाबे के पास पंचम काका मिल गए।तरकारी और पूड़ी दाब चुके थे,हमें देखकर पास आ गए।कहने लगे-बच्चा,भूख लगी होय तो थोड़ा खा लियो।हियाँ खाना बहुतै सस्ता है।तीस रुपय्या में दू ठो पूरी और आलू-टमाटर की सब्जी मिलत है,साथ मा अचार फिरी है।हमने मना करते हुए कहा-नहीं काका,मैं तो कैंटीन से खाकर आ रहा हूँ।आप बहुत दिन बाद मिले हैं,बताइए क्या चल रहा है ?
काका कैंटीन का नाम सुनकर ही चौंक पड़े।कहने लगे-हाँ बच्चा,ई कैंटीन का मसला का हवै ? रेडियो मा खबर सुनी रहै कि हमरे परधानमंतरी जी उहाँ जीमत रहे।सुनत हैं कि टोटल उनतीस रुपय्या मा पूरी थाली मिली रहै।वहिमा दू तरह की दाल,तीन तरह कै तरकारी,मिठाई,खूब सारा सलाद और पापड़ भी।’ हमने उनकी जिज्ञासा को शांत करते हुए कहा-काका,हम उस कैंटीन से खाकर नहीं आए हैं।हमारी कैंटीन में वही थाली एक सौ पचास रूपये की है।आप जिस कैंटीन की बात कर रहे हैं,वह आम आदमी के लिए नहीं है।वैसी थाली पाने के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं।ऐसी भरी-पूरी थाली पाने के लिए नोट नहीं वोट बटोरने की ज़रूरत होती है।’
काका फिर भी बात को समझ नहीं पा रहे थे,बोलने लगे-जो फसल हम उगावत हैं,वो थाली मा पककर इतनी मँहगी कइसे होइ जात हवै ? फिर ऐसी कैंटीन तो हम लोगन के लिए भी खुला चाही।काम-काज के बाद अगर भूख लागे तो हम भी पेट भर खा सकें।हम परिवार सहित ढाबे मा खाएं तो एक दिन भी गुजारा न होए।ई पेसल वाली कैंटीन सबके लिए काहे नहीं खोली जाती बच्चा ?’
हमने उनके कंधे पर हाथ धरते हुए समझाने की कोशिश की-आप नाहक परेशान हो रहे हैं।हमारे देश में राजा और प्रजा के लिए अलग-अलग नियम हैं।वो सड़क किनारे,झोपडी में या कैंटीन में शौक के लिए आते हैं,खाने के लिए नहीं।वो हमारी तरह भूखे भी नहीं होते।उनके पेट का दायरा हमारे-आपके खेत-खलिहान-रसोई से कहीं बड़ा होता है काका।फ़िर उनकी यह मजबूरी है।वो अपने लिए नहीं देश के लिए खाते हैं,इसीलिए देश भर में खाते हैं।’
पता नहीं,काका हमारी बात समझे कि नहीं पर इतना सुनकर उन्होंने कटिंग वाली चाय का ऑर्डर दिया और हम दोनों चाय सुड़कने लगे।
काका कैंटीन का नाम सुनकर ही चौंक पड़े।कहने लगे-हाँ बच्चा,ई कैंटीन का मसला का हवै ? रेडियो मा खबर सुनी रहै कि हमरे परधानमंतरी जी उहाँ जीमत रहे।सुनत हैं कि टोटल उनतीस रुपय्या मा पूरी थाली मिली रहै।वहिमा दू तरह की दाल,तीन तरह कै तरकारी,मिठाई,खूब सारा सलाद और पापड़ भी।’ हमने उनकी जिज्ञासा को शांत करते हुए कहा-काका,हम उस कैंटीन से खाकर नहीं आए हैं।हमारी कैंटीन में वही थाली एक सौ पचास रूपये की है।आप जिस कैंटीन की बात कर रहे हैं,वह आम आदमी के लिए नहीं है।वैसी थाली पाने के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं।ऐसी भरी-पूरी थाली पाने के लिए नोट नहीं वोट बटोरने की ज़रूरत होती है।’
काका फिर भी बात को समझ नहीं पा रहे थे,बोलने लगे-जो फसल हम उगावत हैं,वो थाली मा पककर इतनी मँहगी कइसे होइ जात हवै ? फिर ऐसी कैंटीन तो हम लोगन के लिए भी खुला चाही।काम-काज के बाद अगर भूख लागे तो हम भी पेट भर खा सकें।हम परिवार सहित ढाबे मा खाएं तो एक दिन भी गुजारा न होए।ई पेसल वाली कैंटीन सबके लिए काहे नहीं खोली जाती बच्चा ?’
हमने उनके कंधे पर हाथ धरते हुए समझाने की कोशिश की-आप नाहक परेशान हो रहे हैं।हमारे देश में राजा और प्रजा के लिए अलग-अलग नियम हैं।वो सड़क किनारे,झोपडी में या कैंटीन में शौक के लिए आते हैं,खाने के लिए नहीं।वो हमारी तरह भूखे भी नहीं होते।उनके पेट का दायरा हमारे-आपके खेत-खलिहान-रसोई से कहीं बड़ा होता है काका।फ़िर उनकी यह मजबूरी है।वो अपने लिए नहीं देश के लिए खाते हैं,इसीलिए देश भर में खाते हैं।’
पता नहीं,काका हमारी बात समझे कि नहीं पर इतना सुनकर उन्होंने कटिंग वाली चाय का ऑर्डर दिया और हम दोनों चाय सुड़कने लगे।
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