मंगलवार, 26 मई 2015

सरकार का एक साल और शाल में लिपटी शर्म !

नई सरकार अब एक साल पुरानी हो गई है।चारों तरफ ढोल-ताशे बज रहे हैं।हर चैनल और हर दरवाजे पर ‘अच्छे दिनों’ की थाप दी जा रही है।विरोधियों को थपकी देकर सुलाया जा रहा है।सरकार उत्सव के मूड में है।सर्वत्र इत्र का छिड़काव हो चुका है।मंहगाई और भ्रष्टाचार इतनी धमक सुनकर कहीं कोने में दुबक गए हैं।एक साल पूरा होने पर इतना चौकस और जबरदस्त इंतजाम है तो पाँच साल होने के बाद की स्थिति रोमांचित करती है।उम्मीद है तब तक देश भर के हर मतदाता को ‘अच्छे दिनों’ की वैक्सीन पिला दी जाएगी।इससे बुरे दिनों की आशंका पूरी तरह ख़त्म हो जाएगी।

विकास को देखना है तो जोश देखिये,नीयत नहीं गति देखिये।जहाँ पिछले कई सालों से सर्वत्र मौन तारी था और सरकार एक जगह ठहरी हुई लग रही थी,वहीँ पिछले साल से हमारे मन की बात भी हमारी न रही,उनकी हो गई है।सरकार ठिठकी नहीं बल्कि रोज छलाँगे मार रही है।अंदर की अधिकतर समस्याओं का समाधान बाहर ही है,इसलिए उस मोर्चे पर लगातार सेल्फियाँ दागी जा रही हैं।घर के लोग बातों की भभूत से ही अभिभूत हैं तो बाहर वाले मनमोहक सेल्फी से।पहले के लोग निरा मूरख थे जो विदेशों के लिए बड़ी मेहनत से कूटनीतियाँ बनाते थे।नई सरकार अब उन्हें महज सेल्फी से ही कूट रही है।यह बदलाव नहीं तो क्या है ?

झुमरीतलैया से लेकर झकरकटी तक एक ही फरमाइश बजाई जा रही है।जब बजाने में एका है तो दिखने में क्यों नहीं ? विकास और प्रगति अख़बार के पन्नों और टीवी-स्क्रीन पर छितराई हुई है।रंगीन नजारों को देखने के लिए काला चश्मा मुफ़ीद नहीं होता क्योंकि वह एंटी-चकाचौंध होता है।विकास को उसी की नज़र से देखा जाता है।इसके लिए आँखें और संवेदनाएं झक सफ़ेद होनी चाहिए।सरकार का जोर इसी बात पर है।वह देखने में समाजवाद लाना चाहती है।सब एक जैसा देखें और एक जैसा सुनें।

फ़िलहाल,अच्छे दिनों के नगाड़े बज रहे हैं।आम आदमी धरातल पर और रुपया रसातल पर आराम फरमा रहा है।शर्म पिछले साल से अपना ठिकाना ढूंढ रही है पर उसे गले लगाने वाला कोई नहीं मिला।कुछ लोग कह रहे हैं कि पुरानी शर्म ने अब नए-नवेले गौरव से अपनी गाँठ बाँध ली है।शायद इसीलिए वह अब ढूँढे नहीं मिल रही है।अख़बारों और चैनलों पर नज़र गड़ाए रखिए,हो सकता है शर्म को भी लाज आ रही हो और वह शाल में दुहरी हुई जा रही हो !



1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

जो भी किया, न किया, पर परम्परा गलत डाल दी। अब सबको कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा अगले ४ साल।

धुंध भरे दिन

इस बार ठंड ठीक से शुरू भी नहीं हुई थी कि राजधानी ने काला कंबल ओढ़ लिया।वह पहले कूड़े के पहाड़ों के लिए जानी जाती थी...