'जनसंदेश' में शीर्षक बदलकर ०२/०८/२०१२ |
क्या करें,कंट्रोल नहीं होता !
---संतोष त्रिवेदी
जब से अखिलेश भैया
की सरकार बनी है,तभी से नेताजी के पुराने पहलवान खुंदक खाए बैठे हैं.सरकार बनने के
साथ ही उन्होंने अपने अंदाज़ में जब खुशी मनानी शुरू की थी तभी उनको टोक दिया गया
था कि अब वो पुराने दिन भूल जाओ.सत्ता से बाहर रहकर लम्पटई करना अलग बात है .तब फोटू
ही तभी खिंचती है जब आप हल्ला-गुल्ला मचाएं.सत्ता में रहकर अपनी इमेज को बिलकुल
वाशिंग-मशीन से धुलकर रखना पड़ता है,लेकिन नेताजी के हल्ला-बोल अभियान के
कार्यकर्त्ता क्या करें ? उनको एकदम से नए ‘मोड’ में आना मुश्किल पड़ रहा है.
जब नेताजी विपक्ष
में थे,तब हल्ला-बोल आन्दोलन की अपनी अहमियत थी.इस दल में लाठी-डंडों से लैस पूरी
एक सेना थी जो पब्लिक,सरकार और मीडिया पर अपने अनूठे अंदाज़ से टूट पड़ती थी.तब उनसे
यह वायदा किया गया था कि सरकार के आने पर उनको काम दिया जायेगा.इसके लिए बकायदा यह
एलान कर दिया गया था कि यदि उत्तर-प्रदेश में समाजवाद आया तो मूर्तियों को गिरा
दिया जायेगा जिससे प्रदेश में रोज़गार के ज़बरदस्त अवसर सृजित होंगे.पर हुआ ठीक इसके
उलट,जैसे ही नेताओं को सत्ता का रोजगार मिला,कार्यकर्ताओं को भुला दिया गया.
अखिलेश भैया ने
सत्ता में आते ही घोषणा कर दी थी कि अब मूर्तियों को नहीं गिराया जायेगा इससे
पहलवान-टाइप कार्यकर्त्ता बेचैन हो उठे .उन्हें अपनी तेल से सनी लाठी की चिंता
सताने लगी है कि अब उसका क्या होगा ?हल्ला-ब्रिगेड के सदस्य इसलिए भी उत्तेजित
होने लगे हैं कि भैया के चाचा कई इंजीनियरों को दनादन सस्पेंड करके अपना पुनर्वास
तो कर ले रहे हैं,पर उनके रोज़गार की चिंता किसी को नहीं है.यहाँ तक कि सरकार के कई
मंत्री ‘ट्रांसफर-पोस्टिंग’ के नेक काम से उजली कमाई में लगे हैं .ऐसे में सारी
बंदिशें उन्हीं पर क्यों लागू होती हैं ?इसलिए बहुत दिनों से भरे बैठे
कार्यकर्ताओं ने लखनऊ में माया की काया तोड़कर सिर्फ छोटा-सा शक्ति-प्रदर्शन किया
है.यह बताने के लिए कि उनके हल्ले को हल्के में न लिया जाय.
हल्ला-बोलियों के इस
कृत्य की खबर जैसे ही अखिलेश भैया को मिली कि मूर्ति से धड़ और पर्स गायब है तो सब
काम रोककर रातोंरात नई मूर्ति लगवा दी.आखिर इन्हीं मूर्तियों के बल पर वो सत्ता
में आए हैं इसलिए उनके बने रहने के लिए इनका बचे रहना ज़रूरी है.सबसे ज़रूरी बात यह
है कि किसी भी तरह जनता में यह सन्देश न जाए कि यह सरकार निकम्मी है.जो सरकार
पत्थर की मूर्तियों के प्रति इतनी संवेदनशील दिखती है वह चलती-फिरती जनता का कितना
ख्याल रख सकती है,यह उसने बिलकुल साफ़ कर दिया है.
माया मेमसाब इस
मामले में चुप हैं.उन्हें लगता है कि जीते जी अपनी मूर्तियां स्वयं बनवाने का जो
इलज़ाम विपक्ष लगातार लगाता आ रहा था उसी के द्वारा इन्हें बनवाकर स्थापित होने से
बढ़िया क्या बात होगी ? अब तो उन्हें साफ़ लगता है कि इन मूर्तियों को अगर ढहा दिया
जाय तो उन्हें सत्ता के लिए पांच साल का इंतज़ार भी नहीं करना पड़ेगा.इसलिए
मूर्तियों के रहने से अधिक फायदा इन्हें ढहाने में है,पर नेताजी के सारे पहलवान
अभी खुलकर नहीं आ रहे हैं.
बहरहाल,समाजवादियों
की नई प्रदेश नव निर्माण सेना ने इस बात का संकल्प लिया है कि अखिलेश भैया भले ही
नेताजी का एजेंडा भूल जांय पर वो प्रदेश में हर हाल में इस तरह का तोड़क-अभियान
जारी रखेंगे.इस बात की खबर भैयाजी तक पहुंचा दी गई है जबकि दूसरी तरफ नेताजी की इस
ब्रिगेड को अंदरूनी निर्देश दिए गए हैं कि अब जब सत्ता मिल गई है तो अपनी-अपनी
लाठियाँ अखाड़ों में ही धर दी जांय !
पर क्या
करें,कंट्रोल नहीं होता :-)
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