शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

फागुन कितना बदल रहा है !

जब से फागुन आया है,सब कुछ बदलने पर आमादा है।पहले इस महीने केवल दिल बदलने की खबरें आया करती थीं पर पिछले कुछ दिनों से जो कुछ हो रहा है,उससे आशंका उत्पन्न हो गई है कि जल्द ही सब कुछ बदलने वाला है।राजनीति,मौसम और खेल सब यू-टर्न ले रहे हैं।जहाँ एक तरफ़ कभी चुनाव न हारने वाले ‘शाह’ दिल्ली की जंग हार गए,जिस झाड़ू को ‘स्वच्छ भारत’ अभियान का प्रतीक बनाया था,उसी ने दिल्ली के अभिमान को ढहाया । वहीँ दूसरी तरफ़ क्रिकेट के विश्वकप में भारत से कभी न हारने वाले ‘चोकर्स’ पहली बार चूक गए।लगातार सबसे पिटने वाली टीम इण्डिया अचानक ‘विश्व-कप’ हथियाने की ओर अग्रसर दिखने लगी है।


दिल्ली से लेकर बिहार तक कुर्सी छोड़ने वाले इस्तीफ़े माफ़ी के साथ फिर से काबिज़ हो गए हैं।बदले समय में एक सस्ते मफ़लर ने महंगे सूट को नीलाम कर दिया।हाल की हार ने नौलखा-हार को भी मात दे दी है।पिछली बार हर घंटे घोषणाएं करने वाले लगता है इस बार बड़ी फुरसत में हैं।इत्ते दिनों में पहली कोई घोषणा ‘बिजली हाफ़ और पानी माफ़’ की हुई है.जनता इसी पानी से अब होली खेल सकती है.ब्रेकिंग न्यूज़ के आदी दर्शकों में इससे बड़ी उकताहट बढ़ रही है,साथ ही मीडिया पर मंदी छाने का भी अंदेशा हो गया है।


फागुन का मौसम हो और कुछ बदले नहीं ,ऐसा तो नहीं हो सकता है ना।जब बाबा भी देवर लगने लगे,ऐसे में बंजारा और बाबू बजरंगी कब तक जेलों में बैठे रहते ? फागुन में हर ‘गरीब’ के दिन बहुरते हैं,इसी को ध्यान में रखकर सरकार बहादुर बजट बनाती है।खुद हलवा खाकर जनता को ‘लॉलीपॉप’ दिखाने का फागुन से बेहतर मौका दूसरा कहाँ मिलेगा ? इस मौसम में हर कोई भंग की तरंग में होता है,सो जनता से चुनाव का ‘बदला’ लेकर भी सरकार बेगुनाह साबित हो सकती है।जब जनमत बदल सकता है तो सरकार क्यों नहीं ? गरीब वैसे भी हर किसी की ‘भौजाई’ होता है और भौजाई से फागुन में मजाक तो बनता ही है।


बदलाव तो और भी हो रहे हैं।सरकार अध्यादेशों को कानून बनाने के लिए कृत-संकल्प है.किसान चिल्ल-पों मचा रहे हैं पर सरकार डरने वाली नहीं है।वह यह चाहती है कि उन्होंने खेती-पाती तो बहुत कर ली,अब उनके भी आराम के दिन हैं.स्मार्ट-सिटी के नागरिक अब चने का साग नहीं लोहे के चने चबायेंगे.सरकार के पास काम करने को बहुतेरे विकल्प हैं।इसीलिए लगातार कई एक्ज़ाम फेल हो जाने के बाद भी वह ‘मन की बात’ कर रही है।सरकार कोई बच्चा थोड़ी ना है जो बोर्ड एक्जाम से डर जाए ? अब इतना भी बदलाव नहीं हुआ है।

कोई टिप्पणी नहीं:

धुंध भरे दिन

इस बार ठंड ठीक से शुरू भी नहीं हुई थी कि राजधानी ने काला कंबल ओढ़ लिया।वह पहले कूड़े के पहाड़ों के लिए जानी जाती थी...