गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

बुद्धिजीवी होने के ख़तरे!

इस देश को यदि कोई खतरा है तो वह बुद्धिजीवियों से ही है। अकल'मंद' इस मामले में पूरी तरह से निर्दोष ठहरते हैं।वे तुलसीदास बाबा की चौपाई ‘कोउ नृप होय हमहिं का हानी’ का स्थायी जाप करके कई फ़ौरी संकटों से निजात पा सकते हैं ।बुद्धिजीवी को सामने दिखती हुई चीज़ भी नहीं दिखाई देती,जबकि अकल 'मंद' इस मामले में भी उनसे आगे होते हैं। वे इस सबके आर-पार देख लेते है।बुद्धिजीवी आस-पास के ध्वनि-संकेत नहीं पकड़ पाते जबकि इसके उलट वे सात समंदर पार से भी वास्तविक सन्देश ग्रहण करने में दक्ष होते हैं।


पिछले दिनों देश के अंदर और बाहर क्या-कुछ नहीं हुआ,फिर भी नकचढ़े बुद्धिजीवियों को न कुछ दिखता है न सुनता है।उन्हें न तो जापान से बजाई गई ढोल सुनाई देती है और न ही अमरीका से ‘रॉक-स्टार’ की स्टार-परफोर्मेंस।उन्हें मैडीसन स्क्वायर पर ‘मैड’ हो रही जनता भी नहीं दिखती और न ही अपने चैनल-वीरों का कदमताल करता डांडिया-नृत्य।ये रतौंधी के शिकार वे लोग हैं जिन्हें मंगलयान का ‘अच्छे दिनों’ में अपनी कक्षा में प्रवेश भी नहीं दिखता ।उन्हें तब भी यही दिख रहा था कि देश के हजारों स्कूलों में मास्टर अपनी कक्षा में नहीं पहुँच पा रहे हैं और यह भी कि विद्यार्थी अपनी-अपनी कक्षा छोड़कर भाग रहे हैं।यह निहायत ग़लत नम्बर का चश्मा है,जिसे बुद्धिजीवियों ने खामखाँ अपनी बड़ी नाक पर चढ़ा रखा है।


देश को आगे बढ़ाने में गाँधी जी का हाथ माना जाता रहा है पर यह सब इत्ती आसानी से मुमकिन नहीं हुआ।इसके लिए उनके अनुयायियों को स्वयं दल-बल सहित आगे बढ़ना पड़ा।इतना बढ़ जाने के बाद अभी भी गाँधी जी में इतना कुछ बचा है जिसके सहारे कई पीढ़ियाँ अपना मुस्तकबिल सँवार सकती हैं।अब गाँधी जी के असली विचारों को धरातल पर उतारने के लिए उनके धुर-विरोधी भी कृत-संकल्प हैं।इसके लिए पूरी सरकार सड़क पर झाडू लेकर उतर आई है पर यहाँ भी बुद्धिजीवी टाँग अड़ा रहे हैं।उनको केवल कैमरे के फ़्लैश दिख रहे हैं,ज़मीन का कचरा नहीं । उनसे उस झाड़ू का गौरव भी सहन नहीं होता ,जो मंत्री जी के कर-कमलों में पहुँचकर धन्य हो रही है;वरना किसे नहीं पता कि बिना झाड़ू लिए ही देश के खजाने को कितनी सफाई से साफ़ किया जा सकता है।गाँधी जी का जोर सत्य और अहिंसा के ऊपर भी था पर विकास बलिदान चाहता है,इसलिए उन दोनों को शहीद होना पड़ा। उनके जन्मदिन को सफाई के बहाने बड़ी सफाई से हथियाकर गाँधी की अंतिम पूँजी बचाई जा रही है पर बुद्धिजीवी इसे भी पाखंड समझ रहे हैं।पापी कहीं के !


इन सबसे भले तो वे अकल'मंद' हैं,जो मंदी का शिकार होकर भी तेज सोचते हैं।बुद्धिजीवियों को रेहड़ीवाले की ‘आसमानी-आलू’ की आवाज़ तो सुनाई दे रही है पर मैडीसन स्क्वायर से आती गड़गड़ाहट नहीं।वे न तो स्वयं मस्त रहते हैं और न ही खाए-अघाए लोगों को रहने देते हैं।ऐसे लोगों की जगह मैडीसन स्क्वायर नहीं जंतर-मंतर है,जहाँ पर वे लोकतंत्र के नाम पर रोज़ एक मोमबत्ती जला सकते हैं।इससे उनके दिल को भी गहरा सुकून मिलेगा ।


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