बुधवार, 7 अगस्त 2013

दल हिसाब रखते हैं,देते नहीं !

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 'जनसंदेश टाइम्स' में ०७/०८/२०१३ को प्रकाशित

बहुत लोगों के पेट में इस बात पर मरोड़ उठ रहा है कि राजनैतिक दल अपनी सूचना क्यों छिपा रहे हैं ? उन्हें इतनी सी बात समझ नहीं आती कि राजनैतिक दल तो आम जनता की सेवा के लिए गठित होते हैं। उनके पास अपना कुछ नहीं होता। जो होता है,सब जनता का ही होता है। अब जनता अपने ही पैसे का हिसाब मांगे,यह न तो तार्किक है और न उचित। यह क्या कम है कि गरीब जनता से मिले थोड़े से धन से वे बेचारे देश-सेवा कर लेते हैं वर्ना इतनी मंहगाई में तो आम आदमी का खुद का गुजारा नहीं चल पा रहा है।

सभी दल विचारधारा के नाम पर भले ही अलग हों पर आचार के मामले में वे भारत की विभिन्नता में एकता के ही परिपोषक हैं। किसी दल की कितनी आय,कितना व्यय है,इससे आम आदमी को क्या मतलब ?उसे सत्ता-दल द्वारा तेंतीस या सत्ताईस रूपये में अमीर बनाने की जादुई कला भी नहीं सीखनी । यह उसके बस की बात भी नहीं है। सभी दलों के रोज़ाना के कितने खर्चे होते हैं,यह हिसाब रखना आसान काम नहीं है। उनके दफ्तरों के एक दिन की चाय-पानी का बजट ही आम आदमी की वार्षिक आय के बराबर होता है। गौरतलब बात है कि यह खर्चा भी आम आदमी के नाम ही लिखा जाता है।

आलोचना करने वालों को केवल आलोचना करनी है। उन्हें यदि कभी चुनाव लड़ना पड़े तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायेगा। उनकी सात पुश्त की कमाई भी जायेगी और जमानत भी। वैसे भी चुनावों में सफ़ेद धन कभी फलता नहीं। हमारे नेता केवल जनसेवा के लिए धन की कालिख को अपने मुँह पर चुपड़ते हैं तब कहीं जाकर बाकी जिंदगी को रंगीन बना पाते हैं। क्या आम आदमी ऐसा जोखिम उठा सकता है ? चुनाव में जनता की पाई-पाई, थोक में जनता को ही वापस की जाती है। अगर वो सब चाह लें तो चुनावों के समय भी जनता को ठेंगा दिखा सकते हैं पर उन्हें जनता से बेहद लगाव है। सभी दल हर चुनाव के समय अपनी गाढ़ी कमाई को पाँच साल के लिए फिक्स-डिपॉजिट में डालते हैं। इसमें जितना बड़ा फ़ायदा है,उतना ही जोखिम भी। जहाँ कई बार उनकी रकम डूब जाती है तो वहीँ कई बार अथाह धनराशि में वे खुद डूब जाते हैं।

सभी दलों का आरटीआई के मामले में एक सुर में बोलना इस लिहाज़ से भी बड़ी उपलब्धि है कि हमारे यहाँ लोकतंत्र और राजनीति का भविष्य उज्ज्वल है। हमेशा एक-दूसरे की टांग खींचने वाले जब यकायक मौन हों जाएँ तो समझिए देश को कहीं और से खतरा नहीं है। यह चुप्पी बताती है कि हमारे नेता केवल बयान-बहादुर ही नहीं,गज़ब के मौन-साधक भी हैं। संसद को पवित्र मंदिर समझने वालों की निष्ठा और आस्था पर हमें तनिक भी संदेह नहीं होना चाहिए। वे उसकी पवित्रता को बनाए रखने के लिए कृत-संकल्प हैं। सत्ता-पक्ष और विपक्ष की यह जुगलबंदी इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि अब ये साथ मिलकर जुगाली करेंगे। वे जो भी खाते हैं,जनता के लिए ही ,इसलिए खाते का या खाने का हिसाब मांगना निहायत असंगत और अन्यायपूर्ण है। आम जनता को मुफ्त के मोबाइल और खाना परोसने वालों से हिसाब-किताब करना ऐसा ही है जैसे कोई भक्त अपने भगवान से उसको चढ़ाये हुए प्रसाद का ब्यौरा माँगे। इस बात को सभी दल समझते हैं सिवाय नादान जनता के। खुशी इस बात की है कि नेता अपना हर काम पवित्र मंदिर से ही अंजाम देते हैं,इसलिए उनको कोई पाप भी नहीं लगता।

'जनवाणी' में  ०७/०८/२०१३ को प्रकाशित

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