18/07/2013 को नेशनल दुनिया में |
10/07/2013 को 'जनवाणी' में ! |
१२/०७/२०१३ को कल्पतरु एक्सप्रेस में ! |
‘ये लो झोला और बाज़ार
चले जाओ।घर में पिछले पन्द्रह दिन से टमाटर नहीं हैं पर मैं चुप्पी साधे बैठी हूँ।पड़ोस
वाले पांडेजी तब से अब तक तीन बार मुझे टमाटर दिखा चुके हैं।अब इज्ज़त पर आन पड़ी है
इसलिए तुम भी कुछ करो।’पत्नी ने घुड़कते हुए फरमान सुनाया।
‘भागवान,मुझ पर जुलुम
क्यों ढाती हो ? तुम तो घर के सामने रेहड़ी वाले से ही सब्जी लेती हो, आज भी ले लो।रही
बात पांडेजी की,उनको मैं जानता हूँ।मँहगे टमाटर एक बार ही लाए होंगे।उन्हें ही
फ्रिज से बार-बार निकालकर तुम्हें दिखा रहे हैं।तुम इस जाल में मत फँसो’,मैंने जान
छुड़ाने की नीयत से पाँसा फेंका।
‘अजी,एक तो तुम्हें खुद
अकल नहीं है और मैं बता रही हूँ तो उसमें भी मीन-मेख निकाल रहे हो।टमाटर लेने जा
रहे हो,यह छोटी-मोटी बात नहीं है।बाज़ार से खरीदते और लाते हुए देखकर दस लोगों की
छाती पर साँप लोटेगा।इससे तुम्हारा ही रुतबा बढ़ेगा,मेरा क्या ,मैं तो घर में ही
रहती हूँ।’श्रीमती जी पूरे फॉर्म में थीं।
मरता क्या न करता,झोला
उठाकर बाज़ार की ओर चल दिया।घर से निकलते ही पहली मुठभेड़ पांडेजी से हुई।मन ही मन
खुश हो रहा था कि वो मुझसे ज़रूर पूँछ-पछोर करेंगे ,पर मुझे मायूसी हाथ लगी।वो अपने गमलों में पानी डाल रहे थे।मैंने
झोले को आगे करते हुए खुद ही बता दिया कि बाज़ार से टमाटर लेने जा रहा हूँ।तभी
पांडेजी के मुँह से बकुर निकला ,’हाँ,ज़रूर लाओ ! अब तक माल छँट चुका होगा और सस्ता
भी।’मैं कुढ़ता हुआ बिना जवाब दिए सीधे बाज़ार पहुँच गया।
सबसे पहले आम के बड़े
ढेर पर मेरी नज़र गई और मैंने बिना भाव-ताव किए पाँच किलो आम झोले के हवाले कर लिए।
महज सौ रुपये में झोला भरने के कगार पर था।अब टमाटरों के लिए आरक्षित जगह को भरने
के लिए मैं आतुर हो उठा।झोले के आम कोई देख ले,इसके पहले ही मैं उसे टमाटरों से
परिपूर्ण कर देना चाहता था।थोड़ी ही दूर पर टमाटरों की छोटी-सी ढेरी दिखाई दी।उसके
इर्द-गिर्द तीन-चार ग्राहक झुके हुए थे।टमाटर-विक्रेता से मैंने सवाल किया ,’क्या
इत्ते ही टमाटर बचे हैं ?’ मेरी आवाज़ सुनकर सभी ग्राहक मेरी ओर ताकने लगे।वो मुझे
ऐसे देख रहे थे,मानो वो आपदा-पीड़ित हों और मैं मुआवजा बाँटने वाला।अब बारी
विक्रेता की थी,बोला ‘आप चिंता न करें।आप तो हमेशा पाव भर ले जाते हैं,उतने तो मैं
निकाल ही दूँगा।’
इतना सुनते ही ऐसा लगा
,जैसे नेता जी मंत्री बनने के लिए पद और गोपनीयता की शपथ लेने जा रहे हों और
हाईकमान ने अचानक पार्टी की सेवा करने का निर्देश दे दिया हो।मैंने भी चेहरे पर
नेताई-शरमाहट को लाते हुए बात संभाली,’नहीं,दरअसल आज तो झोला लाए ही टमाटर लेने के
इरादे से थे पर शुरुआत में ही आमों की महक से मैं बौरा गया और न चाहते हुए भी इत्ते
ले लिए।अब इसमें जो जगह बची है,उसी में टमाटर आ सकते हैं।’
टमाटर विक्रेता भी तब
तक मेरा धर्म-संकट समझ गया था और उसने गिनकर चार टमाटर मेरे झोले को समर्पित कर
दिए।मैंने अपनी जेब खाली करते हुए उसकी जेब रुपयों से पाट दी ।ऐसा दृश्य देखकर
आस-पास के ग्राहकों ने हरी मिर्च की खरीदारी शुरू कर दी।चारों टमाटर पूरी निष्ठा
के साथ झोले से झाँकने लगे थे।रास्ते भर मैं खुद को इस बात के लिए कोसता रहा कि
पाव भर टमाटर लेने के लिए पाँच किलो आम लेने पड़े पर रुतबा बढ़ने की खुशी इससे कहीं
ज़्यादा थी।उसमें अब चार-चाँद नहीं चार-टमाटर लग चुके थे।
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