05/07/2013 को हरिभूमि में मेरा व्यंग्य....बस नाम बदल गया ! |
मैं आज़ाद भारत का
ऐसा प्रतिनिधि हूँ,जिसकी हालत इन दिनों सबसे ज़्यादा खस्ता है।आज हमारे गिरे होने
को लेकर बड़ा हल्ला मच रहा है,पर इसमें मेरा रत्ती भर भी कुसूर नहीं है।आज़ादी के
साथ ही कई और चीज़ें व प्रजातियाँ अस्तित्व में आईं थीं,जिन्हें मुझसे जीवनदान मिला
और वो आज सबसे ऊपर हैं।इसका मुख्य कारण यही है कि इन सबने मुझ पर ही अपने पाँव
रखकर चढ़ाई की ।मेरे गिरने की एकमात्र
जिम्मेदार वह खास प्रजाति है,जिसने दिखाने के लिए तो मुझ पर गाँधी बाबा को बिठा
दिया पर असल में वही अपने घर-परिवार के साथ मुझ पर सवार हो गई । मुझमें फ़िर भी
थोड़ी शर्म बची हुई है जिससे मैं ज़मीन में गड़ा जा रहा हूँ पर उनके बारे में मैं कुछ
नहीं कहूँगा जो मेरे बहाने अपनी गिरावट को छुपाये हुए हैं।
मुझे याद है जब शुरू
में मैं ‘आना’ था,तब मेरी शुद्धता और सत्यनिष्ठा को लेकर लोग कई तरह की बातें किया
करते थे।किसी बात को बल देने के लिए अकसर वे ‘सोलहों आना सच ’की मिसाल देते थे।उस
समय किसी के पास ‘आना’ होना,खुशियों का आना होता था।लोग मेला-हाट जाते थे और
बच्चों को ‘आना-दो आना’ देकर निश्चिन्त हो लेते थे।’चार आने की पाव जलेबी बैठ सड़क
पर खाऊँगी’ या ‘सैंया दिल माँगे चवन्नी उछाल के’ गाने उस समय सबकी जुबान पर रहते
थे।इससे साबित होता है कि उस समय ‘आना’ की हैसियत क्या थी।एक और बात ,तब ’आना’
हथेली पर होता था और सामान झोले में जबकि अब हम झोले में होते हैं और सामान हथेली
में।
मेरी मुद्रा में तब अप्रत्याशित
रूप से बदलाव आया,जब सारी दुनिया में आर्थिक उदारीकरण की हवा चली।इस प्रक्रिया में
क्रान्तिकारी परिवर्तन आया और मुझे पाने की चाह में आदमी ने अपने को सामान बना
लिया।वह बकायदा बड़े तराजुओं में तुलने लगा।मेरे लिए उसने अपनी बोली तक लगा ली।
मुझे लपकने के लिए वह लगातार गिरता गया ।मेरी निकटता में वह अपने नैसर्गिक
सम्बन्धों,रिश्तों को भूल गया।हद तो तब हुई जब वह विदेसिया ’डालर’ के तराजू में
मुझे तौलने लगा।’डालर’ के ऊपर जहाँ ज्यादा दबाव नहीं है,मेरे ऊपर वह अपने खानदान
सहित चढ़ बैठा।अब इसके नीचे दबे-दबे मेरा दम फूल रहा है पर वह हटने को तैयार नहीं
है।
अब जब मैं ज़मीन पर आ
चुका हूँ,मुझ पर बैठे लोगों ने राहत की साँस ली है। अभी तक उनकी जग-हंसाई हो रही
थी,क्योंकि वे इसके लिए किसी भी सीमा तक नीचे गिर सकते हैं ।अब उन्होंने खुद मुझे
इतना नीचे गिरा दिया है कि लोग गिरने के मामले में उनके बजाय मेरा उदाहरण दें।अभी
तक वो मुझ से पेट भरते थे,अब पीठ पर चढ़कर बैठ गए हैं।देश को आज़ादी मिले कई बरस हो
गए और अभी होंगे ,पर मुझे हिलने-डुलने तक
की आज़ादी नहीं है और न होगी।इस मुद्रा में पड़े-पड़े मैं केवल असहाय होकर अपने
रहनुमा को देख रहा हूँ,जो छुड़ाने के बजाय मुझे विदेसिया ‘डालर’ के साथ तौलने और स्विस
बैंक के हवाले करने में लगा है।मुझे अपने मरने की चिंता नहीं है क्योंकि मुझ पर
सवार लोग ही मुझे बचा लेंगे ।ऐसा न होने पर फ़िर वो किस पर अपनी सवारी गाँठेंगे ? इसीलिए
मैं अजर-अमर हूँ ।
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