रविवार, 18 फ़रवरी 2024

पुस्तक-मेले की चपेट में अर्जुन !

भगवान कृष्ण अपने रथ में अर्जुन को बैठाकर कुरुक्षेत्र की ओर बढ़ रहे थे,तभी अर्जुन की दृष्टि अचानक ठिठक गई।दसों दिशाओं से आता हुआ जन-समुद्र एक मैदान में समा रहा था।अर्जुन के मन में एक साथ कई प्रश्न कौंधे; ‘क्या दुर्योधन की यह एक और चाल है अथवा गुरु द्रोण ने कोई नया चक्रव्यूह रच दिया है ? आशंकित होते हुए उन्होंने सारथी कृष्ण से प्रश्न किया, ‘प्रभु,यह सब क्या है ? मेरा मन फिर से विचलित हो रहा है।ये कौन-से लोग हैं जो समर्पित भाव से भागे जा रहे हैं ? कृपया मेरी शंका हरें, हरि ! ’


भगवान हँसे और कहने लगे, ‘पार्थ ! घबराओ नहीं।न तो यह दुर्योधन की कुटिल चाल है और गुरु द्रोण का बुद्धि-चातुर्य।यह दृश्य कलियुग का है।हमारा रथ अचानक समय से बहुत आगे निकल गया है।यह हस्तिनापुर का भविष्य-प्रदेश है।ये सब कलम के योद्धा हैं।लिट-फेस्टसे वंचित प्राणी अपनी वार्षिक-मुक्ति के लिए यहाँ एकत्र होते हैं।वर्ष भर ये जो भी लिखते हैं,उसी को एक-दूसरे पर ठेलने का उपक्रम करते हैं।इस तरह इनमें और साहित्य में संभावना बनी रहती है।ये ऐसे अहिंसक जीव हैं जो केवल शाब्दिक-हिंसा में विश्वास करते हैं।इसलिए हे धनुर्धर ! घबराने की कोई बात नहीं।इनके लिखने से साहित्य के अलावा कभी किसी का कुछ नहीं बिगड़ा।


ओह,तब तो मुझे इस साहित्य-समागम के बारे में विस्तार से बताने का कष्ट करें,केशव ! युद्ध के दृश्य देख-देखकर मुझमें अत्यंत नीरसता गई थी।इन प्राणियों के उत्साह को देखकर मैं भी मुदित हो रहा हूँ।इन सबके बारे में और जानने की इच्छा है।अर्जुन ने कृष्ण की ओर आशा-भरी दृष्टि से देखा।


अवश्य पार्थ !’ कृष्ण ने 5 जी नेटवर्क से तत्काल संपर्क स्थापित किया।पल भर में पूरा पुस्तक-मेला अर्जुन की हथेली पर उतर आया।अर्जुन आँखें फाड़-फाड़ कर इस कलियुगी-कौतुक का अवलोकन करने लगे।


उनकी दृष्टि सहसा एक स्थान पर रुक गई।अधेड़,युवा,वृद्ध सभी समभाव से वहाँ अटके हुए थे।अर्जुन पूछने लगे, ‘हे मुरारी ! ये सब अपने-अपने मुँह टेढ़े किए हुए हैं,फिर भी प्रसन्न-चित्त दिख रहे हैं।इनका प्रयोजन क्या है ?’ प्रभु रहस्य खोलते हुए बोले, ‘धनंजय ! इन सभी के हाथ में मोबाइल नामक आधुनिक दिव्यास्त्र है।उसी का सदुपयोग करके ये स्वयं को इस धरा पर स्थापित कर रहे हैं।इनके शरीर भले इन्हें त्याग दे पर इनकी आत्मायें इनकी छवियों में सदैव विराजमान रहेंगी।शरीर नष्ट होगा,छवि नहीं।


मैं धन्य हुआ मनमोहन ! आपने मेरे चक्षु खोल दिए।अब तक मैं अपने गांडीव को ही सबसे अधिक शक्तिशाली समझता रहा।इनके बारे में मेरी जिज्ञासा बढ़ रही है।इस मेले में कितने प्रकार के प्राणी आते हैं,यह भी बताएँ,माधव !’ अर्जुन का धीरज छूट रहा था।


इसमें मुख्यतः तीन तरह के जीव आते हैं।एक वे,जिनकी अभी-अभी किताब आई है,दूसरे वे,जिनकी आने वाली है।तीसरे वे भी हैं, जो इन किताबों कामुँह-नोचनकरने के लिए प्रतिबद्ध होते हैं।भ्रमवश कुछ पाठक भी आते हैं ,जिन पर किताबी-हमले होते हैं।जो चतुर होते हैं,वे विमोचन के समय इस जुगत में रहते हैं कि विमोचित-कॉपी मार दें,पर यदि लेखक उनसे अधिक चतुर हुआ तो वह पेमेंट की रसीद देखकर ही ऑटोग्राफ़ देता है।इस तरह साहित्य लेखकों और पाठकों के सम्मिलित प्रयास से अधोगति को प्राप्त होता है।आलोचक इसे ही साहित्य की सद्गति का नाम देते हैं।कृष्ण ने कलियुगी-भाषा में ही अर्जुन को समझाया।


पर प्रभु ! क्या लेखक केवल किताब की मुँह-दिखाई के लिए ही यहाँ आता है ?’ अर्जुन ने साहित्य को और निकट से जानने की इच्छा प्रकट की।


नहीं,कौन्तेय ! लेखक पुस्तक के बहाने अपनी मुँह-दिखाई वसूलता है।जो पाठक उसके लिखे का लिहाज़ नहीं करते,कम से कम उसका कर लें,इसी भावना के साथ वह प्रकाशक के स्टॉल पर अहर्निश तपस्या करता है।फिर भी कुछ अज्ञानी और निर्मम पाठक किताब पलटते हैं,बधाई देते हैं और निर्लज्जता से आगे बढ़ जाते हैं।लेखक फिर भी हिम्मत नहीं छोड़ता है।वह नए मित्र का कुशल-क्षेम पूछने लगता है।इस आपाधापी में कुछेक पुस्तकें निकल जाती हैं।इस तरह कालांतर में वहबेस्ट-सेलरबन जाता है।कृष्ण ने पुस्तक-मेले का पोस्ट-मार्टम कर दिया।


एक अंतिम जिज्ञासा है,प्रभु ! कलियुग में महाभारत होने के क्या चांस हैं ?’ अर्जुन ने थोड़ा सकुचाते हुए पूछा।हे पार्थ ! आलोचक जब गोष्ठी में कहता है कि आपका लेखन अद्भुत है,कालजयी है।आप साहित्य के नए प्रतिमान हैं तो नवलेखक निहाल हो उठता है।उसके लिए वह दुनिया का सर्वश्रेष्ठ आलोचक हो जाता है।इस तरह वह अपने प्राण और प्रतिष्ठा की रक्षा करने में सफल हो जाता है।पर जैसे ही आलोचक कहता है कि यह आपकी विधा नहीं है।आप प्रयोग नहीं करते,बस दोहराव है।अब छपने से आगे बढ़िए।यह सुनकर लेखक अपनी मूल अवस्था को प्राप्त हो जाता है।परिणामस्वरुप आलोचक को परमगति प्राप्त होती है।कलियुग मेंमहाभारतऐसे ही होता है।कृष्ण ने साहित्य का सार समझाया।


अर्जुन के लिए यह सब नया था।वह कुछ देर और रुक कर मेले में हो रही गोष्ठियों का आनंद लेना चाह रहे थे।तभी कुछ लेखक उनकी ओर आते दिखे।कृष्ण ने सावधान किया कि अब यहाँ से निकलने में ही भलाई है।तुम्हारा गांडीव भी इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।ये सब समीक्षार्थ पुस्तकों से लैस हैं।


संतोष त्रिवेदी


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